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किरण ४ ]
संसार-वैचित्र्य
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व्याख्या यह कहकर हो सकती है कि या तो यह शब्द पर एक लेख लिखा है। यद्यपि वे गोम्मट-सम्बन्धी को संस्कृतका रूप देने की प्रवृतिको लिये हुए है, या अपनी बहसकी बहुत सी बातोंमे मिस्टर पै का अनुयह दक्षिणको कुछ भारतीय भाषाओकी प्रवृत्तिकं करण करते हैं, फिर भी उन्होंने एक फुटनोटमे ठीक उदाहरण स्वरूप है जो प्रायः कोमल व्यजनोंको लिखा है कि 'मन्मथ' का 'मम्मह' या 'वम्मह' यह कठोर बना देती हैं। आखिरकार यह एक संभाव्य निर्णीत तत्सम है; और वे इस एक खुले प्रश्नकी व्याख्या है। फिर भी यह निश्चय है कि हमारा उस तरह छोड़ देते हैं कि क्या 'गम्मह' 'मन्मथ' के सूत्रको इस प्रसंगमें लगाना ठीक नहीं है। बगवर किया जा सकता है ।
मिस्टर 'के०पी० मित्र' ने हाल ही में 'बाहुबल' ३६ The Jain Artiquary Vol. VI. 1. * इम लेग्यका पूर्वार्ध गत तीमरी किरणमे छप चुका हैP 33.
यह उत्तरार्ध है।
संसार-वैचित्र्य
अल्प हैं जगम मंगल-गान, अधिक मुन पड़ती करुणा-नान ! क्षीण मृद स्वर हैं, गर्जन घोर, अधिक है चिन्ता, थोड़ा ध्यान !
मनोहर है अथ, इति विकगल ! कुटिल है, मजनि जगतकी चाल !!
कुटिल है, सजनि जगतकी चाल !
कहूँ मैं किस मांचे हाल ? निशाके बाद सुग्वद है प्रात, पुनः है उस पर तमकी घात ! मचा रहता है भीषण दन्द, मिलन लघु,चिरवियोग पश्चात् ! निराशा व्याधिनि, अाशा-जाल !
कुटिल है, मजनि जगतकी चाल !! जगतके सुख-दुग्व नाटक-जात, रुदनके बाद सुहाम हठात ! अरे फिर भी क्यों व्याकुल प्राण! कहूं मैं कैसे जीकी बात ? छिपा जीवन-मंप्टमं काल !
कुटिल है, मजनि जगतकी चाल ! मचं जब, सजनी, रमकी लूट, निकलता विषका निझर फुट ! जगतमें उथल-पुथल घनघोर, अल्प है मधुऋतु, ग्रीष्म अट ! पपीहे विपल, अल्प पिक-माल ! कुटिल है, सजनि जगतकी चाल !!
ऋषिकुमार मिश्र 'मुग्ध
यही है मंतत सुग्वकी चाह, बहा करता पर दुःग्व-प्रवाह ! तनिकम गझ, तनिकमें ग्वीझ,
भरी पर दोनाम चिग्दाद ! जलाना बनकर ज्वाल-प्रवाल ! कुटिल है, सजनि जगतकी चाल !!
सजनि, शैशवकी मचलन मधुर, श्रकद्द फिर यौवनकी वह प्रचुर ! जराकी जीर्ण कराह निदान,
शान्ति चिर पाता है न पर उर ! नाचती सतत मृत्यु दे नाल ! कुटिल है मजनि जगतकी चाल !!