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________________ ४६४ अनेकान्त पंख तड़फड़ाने लगा; और लगा अपनी गोल-गोल नन्हीं खांसे इधर-उधर देखने ! शायद किसीका खोजता हो ! मिनिट भर की वेदनामय श्रायुमं क्या देखता, क्या सोचता ? पीड़ा मौतकी दूत बनकर जो श्राई थी ! एक वेकलीकी तड़प ! और बस, खतम ! रानीने देखा – 'वह एक कबूतरका बच्चा है, कैमा सुन्दर ?' वह उठाने के लिए झुकी ! पर, यह क्या ? मिरके पास ग्वड़खड़ाइट कैसी है ? नज़र उठाकर देखा तो एक या दो कबूतरको शोकविह्वल चक्कर काटते पाया-बेचैन बेखबर ! रानी क्षण-भर रुकी, और अपने विचारोमं डूब गई— जैसे अथाह जल में छोटी-सी कंकड़ी ! बच्चा मरा हुआ सामने पड़ा था ! उसकी ममतामयी माँ — उसके विछोह दुःखसे पागल हुई— उसे देख रही थी, सिर्फ देग्व ही रही थी, आँसू-भरी आँखोस ! श्राह ! उसे छू लेने तकका उसे दक नहीं था, हिम्मत नहीं थी, अधिकार नहीं था ! वह कभी दरख्त की इस टहनी पर, कभी उसपर ! कभी बैठती, कभी उठती ! कभी भागी-भागी फिरती अन्तारक्षकी छाती पर, बेतहाशा दौड़ती ! श्रोह ! उसे क्षण-भर भी चैन नहीं ! अरे, उसे कैसी वेदना थी वह !!! हृदयकी पुकार हृदय तक पहुँचने लगी, शायद घायल की गात घायलने जान ली ! गनीका कठोर हृदय भी दयासे प्लावित होगया ! वह सोचने लगी [ वर्ष ४ कालपर किसका वश चला है ? क्या करती ? 'हाय !' करके रह गई ! उसके भी एक बच्चा था - ऐसा ही सुन्दर; ऐसा ही कोमल, ऐसा ही प्यारा और ऐसा ही छोटा-मोटा, भोला-भाला ! मगर..... ! निर्दयी -कालने उसे न छोड़ा, उसके प्यारे बच्चेको देखते-देखते उठा लिया ! वह विवश रोती- कलपती रह गई ! टप्-टप् !!! दो बूँद रानीकी खाने बग्वेर दिये ! और उसी वक्त उसने देखा -- बेचारी कबूतरी रो रही है ! उसका वच्चा जो मर गया है ! उसकी आँखोका तारा ! रानीके मनमें विद्रोह उठा -- 'उसका निर्दयी काल ती तू है रानी तू !' वह एक दम रो पड़ी ! जैसे उसका बच्चा अभी ही मरा है ! घाव कुरेदकर ताजा बना दिया हो ! मा के हृदय ने माके हृदयकी व्यथाको पहिचान लिया ! उसने गुलेल उठा कर दूर फेंकदी, जैसे वह उसकी चीज़ ही नही थी । भूलसे किसीने उसके हाथ में थमा दी थी ! विव्हला- कबूतरी इधर-उधर देखती रही, फिर वह अपने मृत-पुत्र के समीप श्रा बैठी ! देखता कोई वह करुण दृध्य ! दो मा-हृदयांके बीच में एक मृतक पुत्रका निर्जीव शरीर ! घंटों हो गए, पर रानी न उठी, अपने स्थानसे चिगी तक नहीं ! निर्जीव हो, पत्थरकी पुतली हो, या मिट्टीका ढेर ! साथी आए और जैसे-तैसे कर डेरे पर ले गए ! उमी जड़ता ढंग में ! नहीं कहा जा सकता -- चैतन्य है वह, या तब थी ? X X X X [8] आँखें लाल हैं, शरीर तप रहा है ! बुखारकी तेजी है ! रानी गुम सुम पढ़ी हैं ! किमीसे बोलती-चालती नही ! खाना-पीना तक छूट गया है ! केवल दूध उसका जीवन रक्षक बन रहा है I शाम को बुखार जब ढीला पड़ता है, बोल सकनेकी
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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