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किरण ३ ]
भ्रातृत्व
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करतं और इस समाज के धन-लोलुपी लोगों की निकृष्ट महान् उपकार करेंगी जिसके लिये भावी स्त्री-सन्तति सदा
और घृणित म्यवसाय-शनि जो अपनी बालिका को बेचकर के लिये उनकी प्रणी रहेगी। रुपये-पैसेसं अपना घर भरना चाहते हैं इस क्रय-विक्रय के बेजोड़-विवाह का ऐसा ही एक और रूप जिसमें घिनौने व्यवसाय के विरुद्ध समाजके कुछ समझदार लोगों बधूकी उम्र बरसे बड़ी अथवा समान होती है। स्त्री-जाति ने खबान्दोलन किया लेकिन वह व्यर्थ माबित हुआ। और पुरुष-जातिके शारीरिक संगठनकी दृष्टि से वरकी उम्र पंचमेल मिठाईकी शानदार जीमनवारोंने और बारातक पांच-छः वर्ष अधिक होनी चाहिये । वरना उनका जोड़ा लम्ब जुलूसों ने उन आन्दोलनों को ऐमा दबाया कि बहुत ही बेढंगा और उपहास-योग्य रहेगा। वधू जहां आन्दोलन करने वालोंको बेतरह मुंह की ग्वानी पड़ी भार विवाह की आवश्यकता और गृहस्थ-जीवनकी बारीकियोंसे बालिका को बेचने और खरीदने वाले महारथी (?) परिचित होने की चंप्टा कर रही है वहां वर उससे अभी मचमुच अपने पुरुषार्थ (?) में सफल हुए और हारह है। कतई अनभिज्ञ है। फलस्वरूप दोनों ही विवाहित जीवनके अफ़सोस ! समाजकी प्राग्वे तो बन्द हैं ही किन्तु कानून सुखम वंचित है। ऐसा देखा गया है कि जो लोग अपने भी ए जुर्मों का कोई प्रतीकार नहीं कर सकता । फिर इस बाल-पुत्रकं लिये बड़ी बह लाना पसन्द करते हैं, उनकी घिनौने व्यापारको बन्द करने वाला कौन है ? ईश्वर । मही पमन्दमें या तो टीके या दहेजमें दी जाने वाली किसी बड़ी नहीं वह भी चुप है । कहावत है ईश्वर उसीकी सहायता रकमका लोभ लिया TTA
रक्रमका लोभ छिपा रहता है या बहू पर तुरन्त ही गृहस्थी करता है जो अपनी महायता प्राप कर सकता है । वह देख के भारकी जिम्मेवारी छोड़ देनेकी लालसा लगी रहती रहा है स्त्री जाति कहां तक पुरुषोंके द्वारा किये गये अन्या- है। लेकिन इस लोभ और लालसाके आगे वे यह नहीं चार को सहन करती है और कब उसकी सहनशीलता (?) देखते कि उनकी सन्तान का कितना अहित होरहा है। की हद्द खतम होती है। समय प्रागया है और हमें चाहिये उनका पुत्र अपनी प्रांखोंके आगे एक प्राफत-सी खड़ी कि हद किमीकी महायताके लिये हाथ न पमारें और न देखकर सदा घुलता रहता है और जीवन में कभी नहीं उसकी प्राशा ही रक्वें किन्तु स्वयं ऐसे अत्याचारों का पनप सकता तथा दाम्पत्य सुखसं सदाके लिये वंचित कर मुकाबला करने के लिये खड़ी होजायें । जहां कहीं ऐसे घृणित दिया जाता है। व्यापार-व्यवसाय का मौका श्रावे बालिकाएँ स्वयं मुकाबलंके यह तो हई अवस्था सम्बन्धी विषमताकी बात। यदि लिये तत्पर होजायें और आवश्यकता पड़ने पर अदालत और हम गुणोंकी विषमताके बारेमें विचार करेगे तो भाजके कानून की शरण लें । यदि अदालत और कानूनको रुपयों दाम्पय सम्बन्धमें और भी विकार और बुराइयां नज़र की मठीसे दबा दिया जाय तो वे स्वयं प्रान्म-शक्रिमे श्रावेंगी। लेकिन उनको अधिक विस्तारस लिखनेका न तो अपने विपक्षियों का मुकाबला करें । भले ही उसको अपने समय ही है और न इस छोटे निबन्धमें बखान करनेकी जीवन में घोर से घोर कष्ट क्यों न झेलना पड़े, लेकिन एक गुजाइश ही है। सामान्य तौर पर यही कह देना काफी पिता-तुल्य वृद्ध की वासनाका शिकार न हो, जा अपने होगा कि जिन दो युवक युवतियोंका प्राजन्म-सम्बन्ध स्थाधारमा और कर्तव्य को कतई भूला हुआ है । वह भूल जाय पित होरहा है, सम्बन्ध स्थापित करनेके पहले यह विचार कि विपक्षियों में उसका पिता भी है और भाई तथा चाचा लेना चाहिये कि उनमें कोई ऐसी विषमता तो नहीं है जो भी हैं सचमुच वे पिता और भाई होने योग्य नहीं हैं। उनके जीवन का दुःखित करदे | वे कहां तक आपमके सहअगर दो-चार बहिनें भी ऐसी श्राफ़तके समय अपनी योगमे अपना और देशका उद्धार कर सकेंगे? उनके वीरता और प्रारम- शक्तिका परिचय देंगी तो इन जघन्य जीवन और व्यक्तिस्व में कोई ऐसा अन्तर तो नहीं है जो व्यवसायोंमें हिस्सा लेने वालोंकी तबियत ठिकाने या उनको एक-दूसरेसे कतई पृथक रकग्वे । उदाहरणके तौर जायगी और वे भूल कर भी ऐसे कुकृत्यों में भाग नहीं लेंगे। पर शिक्षा और अशिक्षा ही अन्तरका लीजिये। मान व अपना उद्धार तो करेंगी ही लेकिन अपनी जाति का भी लीजिये आप एक ग्रेजुण्ट पत्रके पिता हैं और आपने उसका