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अनेकान्त
[पणे
क्या है ? प्राचार्यने उत्तर दिया-मोक्ष पात्माका विद्वानोंकी चर्चाके विषय बने चले जा रहे हैं। अभी हित है। पुनः भव्यने पूछा कि मोक्षका क्या स्वरूप तक इस विषयमें जितनी चर्चा ह है और उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है ? आचार्यले अन्तरंग पर किसी भी प्रकाश नहीं डाला। दो एक मुत्तर दिया-समस्तकममलकलं कसं गहित अशरीरी भाइयोंने अपने अपने संप्रदाय में प्रचलित आगमोंमेंसे प्रात्माके अचिन्त्य और म्वाभाविक ज्ञानादि गुण- सूत्रोंके बीज उपस्थित किये हैं। पर उनके उपस्थित कप नथा अव्याबाध सुग्वरूप संमारम अत्यन्त भिन्न करनेमें विश्लेषणात्मक बुद्धिस काम न लेकर या तो अवस्थाको मोक्ष कहते हैं । xxइसका निर्दोष समन्वय करनेका ही प्रयत्न किया गया है या उनके स्वरूप हम (सूत्रकार) आगे बनलाएँगे । इत्यादि लिये आधार एक संप्रदायके ही सूत्र रहे हैं, इस लिये
पूज्यपाद स्वामीने 'मम्यग्दशेनझानचारित्राणि इससे भी सूत्र और सूत्रकारकी ठीक परिस्थिति पर मोत्तमार्गः' इम सूत्रके प्रारंभमें जो सूत्रकार और प्रकाश नहीं पड़ सका है। मैंने जहांतक विचार किया भव्यका संवाद दिया है इससे तीन बातें प्रगट होती है उसके अनुमार यह मार्ग उचित प्रतीत होता है कि हैं। पहली यह कि सूत्रों की रचना सूत्रकारने किसी प्रचलित दोनों मूत्रपाठोंका दोनों संप्रदायोंमे प्रचलित भव्यके अनुरोधर्म की। दमरी यह कि सूत्रकार स्वयं मान्यताओं और व्यवहृत होने वाले शब्दभेद आदिके निथ होते हए मणाधीश थे। और नीसग नह कि आधार परीक्षण किया जाय । सं पूज्यपाद म्वामीन अपनी वृत्ति, मनके सामने जो और सूत्रकारका ठीक इतिहास तैयार करने वालोंको सूत्रपाठ था उमपर लिम्बी है।
सहायता मिलगी । इसी निश्चयानुसार तीर्थंकर उधर श्वनाम्बर संपदायमें नत्वार्थसूत्रपर सबसे प्रकृतिके बंधके कारणोंके विषयमें दोनों संप्रदायके पुगमा एक भाष्य पाया जाना है, जो स्वयं सूत्रकारके आगमोंमेसे मैंने जो कुछ भी सामग्री संग्रहीत की है द्वाग रचा हा कहा जाता है। भाष्यके प्रारंभमें जो बह इस समय पाठकोंके समक्ष प्रस्तुत करता हूं। ३१ श्लोकोंमें उत्थानिका है उमकं २२ वें श्लोकमें तीर्थकर और तीर्थकरगोत्र नामकर्म प्रतिक्षारूप में लिग्या है कि जिमम विपुल अर्थ अर्थात् पदार्थ भग हरा है, और जो अहंदूचनके एक देशका
दोनों संप्रदायके भागम प्रन्थों में उपयुक्त दोनों संग्रह है ऐसे इस तत्त्वार्थाधिगम नामके लघुप्रन्थका
शब्द पाये जाते हैं इसलिये पहले तीर्थकरगोत्र नाममैं शिष्योंके हिनके लिये कथन करूंगा।' यथा
कर्म शब्दका उपयोग दोनों संपदायके आगमोंमें कहां
और किस अर्थन किया गया है यह सप्रमाण दे देना नस्वार्थाधिगमाख्यं बर्थ संग्रह लघुग्रन्थम् । वरयामि शिष्यहितमिममहद्वचनैकदेशस्य ॥ २२॥
ठीक प्रतीत होता है । दिगम्बर सम्प्रदायमें षटखण्डा
गमके बंधमामित्तविचय नामक खंडमे यह शब्द भागे भाष्यमें 'वक्ष्यामि' आदि प्रयोग पाये हैं, मचेल परंपगके पांषक प्रमागा भी मिलने हैं और
भाया है। यथाप्रन्थके अन्त में प्रन्थके अंगरूपम बाचक उमाम्बाति
"तन्य इमेहि सोलसहि कारणेहि जीवा तिथवरणामकी एक प्रशम्नि भी मंग्रहीन है। जिनमें नथा उपर्यक्त गोदकाम अति ॥ ..॥" लोकके भाधारमं यह अर्थ निकलता है कि सूत्र और
अर्थ-भागे कहे जाने वाले इन सोलह कारणोंस भाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं और व सचेल परंपराके जीव तीर्थकर नाम गोत्रकमका बंध करते हैं। रहे होंगे।
तीर्थकर नामकं साथ गोत्रशब्द क्यों जोड़ा गया इस प्रकार सूत्रों और सूत्रकारके विषय में दोनों है इसका धवलाकारने इसप्रकार समर्थन किया हैमंप्रदायोंके टीकान्प्रन्यांमें भिनभिन्न मामग्री पाई " तित्ययस्स्स बामकम्मावयास्स गोदसरबा?' जाती है। इसलिये अब भी सत्र और सबकार उचागोवधावियाभावितणेश तिस्थवरस्सवि गोवत्तसिद्धीदो।"