SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 630
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ११-१२] तस्वार्थसूत्रका अन्तःपरोक्षण ५८५ अर्थ-जबकि तीर्थकरप्रकृति नामकर्मका एक रह गया, इसका कारण या तो पाठकी सुगमता होगा भेद है, ऐसी हालतमें उस गोत्र संज्ञा कैसे प्राप्त हो या भ्रमका निवारण । कारण जो कुछ भी हो, इतना सकती है ? नहीं, क्योंकि, तीर्थकर नामकर्म उच्च सच है कि भागे तीर्थकरनामगोत्रकर्मका भागम में गोत्रके बंघका अविनाभावी है, इमलिये इस गोत्र व्यवहार करना ही छोड़ दिया गया। यह संज्ञा प्राप्त हो जाती है। श्वनाम्बर संप्रदायमें स्थानांगमें तीर्थकर नाम तीर्थकरप्रकृतिके पंधके कारण गोत्रकर्म यह शब्द पाया है। यथा तीर्थकर या तीर्थकरनामगोत्रकर्म इन दोनों शब्दों "समणस्म भगवो महावीरस्स तित्थंसि नहिं जीवे हिं के विषयमें दोनों संप्रदायोंमें जिसप्रकार एकसी तिस्थकरनामगोयकम्मे निव्वत्तिए ।" सूत्र ६.१ पृ० ४३२ परम्पग पाई जाती है उस प्रकार बंधक कारणोंकी अर्थ-श्रमण भगवान महावीरक तीर्थमें स्थिति नहीं है । इस विषयमें दोनों मंपदायक मूल नौजीवांने नीर्थकग्नाम-गांत्रकर्मका बंध किया। सूत्रोंमें काफी मतभेद है, इसलिये तस्वार्थसूत्रकी ___टीकाकार अभयदेव सूरि इमकी टीका करते हुए दृष्टिमे यह विचारणीय चर्चा है । अतः हम दिगम्बर नीर्थकग्नामगोत्र पदका निम्नप्रकार अर्थ करते हैं- सम्पदायक मागमसूत्र, श्वेताम्बर सम्पदायके भागम "तीर्थकरत्वनिबंधनं नाम तीर्थकरनाम, तरच गोत्रं च सूत्र, तत्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र इन सबमें कर्मविशेष एवेत्येकवद्भावात् तीर्थकरनामगोत्रम् | अथवा अन्धकं जो जो कारण पाये जाते हैं उन्हें अलग २ तीर्थकर इनि नाम गोत्रमभिधानं यस्य तत्तीर्थकरामगोत्रम् ।" देकर अन्तमें सनका मानचित्र दे दना सचित समझते अर्थ-तीर्थकरत्वके कारणभून नामकर्मको हैं। इससे उनके अध्ययन करने में पाठकोंको मुभीता तीर्थकरनामकर्म कहते हैं। गांव शब्द कर्मविशेषका रहेगा। वाची है । इसप्रकार दोनों में एकवद्भाव कर लेनम दिगम्बर संपदायक षटखंडागममें बतायगये नीर्थकरनामगोत्रकर्म कहा जाना है। अथवा, ताथ- बंधक कारणकर यह जिस कर्मका गांत्र स्यात् नाम है वह नीर्थ __"सणविसुज्मदाए विणपसंपएणदाए सीमारेसुधिरदिकरनामगोत्रकर्म कहा जाता है। मी प्रकार गात्र शब्द विना कंवल तीर्थकर चारदाए भावासण्सु अपरिहीणवाए खणलवपरिश्मणवाए शब्द भी दोनों सम्प्रदायांक प्रागमोंमें पाया जाता है। खदिसंवेगसंपरणदाए पथा थामे तथा तवे साहुणं पास दिगम्बर संप्रदायक षटम्बण्डागमकं प्रकृति अनु. अपरिचागदाए साहूर्ण समाहिसंधारणाए साहणं वेजावकयोगद्वाग्में नामकमेकी तेरानवें प्रकृतियां गिनाते हए जोगजेत्तदाए पातमत्तीए बहुमुनभत्तीए पवषणभत्तीए यह शब्द पाया है। यथा परयणवदाए पषषणप्पभावबाए अभिक्सवणाणो. "xxणिमिणतिथवरखामंचेदि।" मूत्र, पत्रखा बजोगगुत्तदाए रचेदेहि सोखसेहि कारणेहि जीवा तित्य श्वेताम्बर भागमसूत्र झानाधर्मकथांगमें केवल यरणामगोदकम्मं बंधति ।" ४१ तीर्थकर शब्द मिलता है। यथा दर्शनविशुद्धता, विनयसंपन्नना, शील-निर्गन"तित्यपरसंबहानीयो।" अध्ययन ८, सूत्र १५ चारिता, आवश्यकापरिहीनता, क्षणलवप्रतिबोधनना, इसस इतना तो स्पष्ट होजाता है कि दोनों लम्धिसंगसंपन्नता, माधुसमाधिसंघारगामा, माधु. मम्प्रदायके भागमसूत्रोंमें तीर्थकर या तीर्थकग्गांत्र वैयावृत्ययोगयुक्तना, अगहनमत्ति, बहुभुनभक्ति, प्रब. नामकर्म ये दोनों शब्द पाये जाते हैं। दोनों संप्रदायों चनक्ति, प्रवचनवत्मलता, प्रवचनप्रभावना और के उत्तरवर्ती भागमोंमें तार्थ करनामगोत्रकर्म यह अभीक्ष्णज्ञानांपयांगयुक्ता; इस प्रकार इन सोलह शब्द छूट गया और केवल नीर्थकरनामकर्म शब्द कारणोंमें जीव तीर्थकरनामगोत्रकर्मका बंध करते है।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy