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________________ किरण ११-१२] तस्वार्थमन्त्रका अन्तःपरीक्षण साधु हीथे । यपि जैन साधु संस्कृत भाषा प्रकाण्ड- ब हमने भित्र भित्र प्रत्यानर्गत अपनश भाषा विद्वान थे लेकिन फिर भी लोकभाषाको अपमाना उन्हें की योगी सी की। इसके अतिरिक्त और भी उचित जेंचा, क्योंकि जैनचौर बराचार्योग राम बहस पुरातम धोंमें अपभश भाषाके गा-पद्याक पावसे ही लोकभाषाको अपनाया था। भगवान महा- उदाहरण पाये जाते हैं, जिसका उस्लेव यथा स्थान किया बीर और गौतमपुदन अपने सिदान्तोंका प्रचार उस समय जायगा। की लोकभाषाओं-मई मामधी और पानी में ही किया था। __सामान्यतः अपभश भाषा साहित्यका निर्माणकाल लसाहित्य परस ज्ञात होता है एकमार गौतम छठी शताग्निसे बारहवीं शतानि तक माना जाता रहा को उनके शिष्योंने कहा कि क्या माप सिबाम्तोंको है। और इसीसे कुष वर्ष पूर्व जब अपभ्रंश भाषा हम वेद भाषामें अनुवादित करें ? उत्तरमें उन्होंने कहा साहित्यका प्रश्न होता था तो बड़ा ही हास्यास्पद मालूम भियो! कुन बचमको कदापि बदमें परिचित नहीं होने लगता था। प्रसिल बात यह है कि कोई भी करना, पति करोगे तो दुशतके मामी मोये ।। पम्नु जहाँ तक अपने वास्तविक रूपमें प्रकट न हो वहां भिगण ! बुद्ध-चमको स्वभावाने ही प्राय की तक उसके प्रति लोगों में अनजानकारी एवं उपेक्षाका ही मैं अनुशा देता है। पाठकोंको ध्यान रहे कि यदि जैम भाव आता है। उस समयक विद्वानोंका अपभश विद्वान उस समय इम लोक भाषाको अपमान में अपना साहित्यके विषय में इतना ही ज्ञान था कि कालीदास प्रथ अपमान समझते तो भाज हम जो प्रौढ अपश साहित्य तथा पिंगल और हेमाचार्यकृत व्याकरण भानिमें ही उसके देख रहे हैं उसका देखना तो दूर रहा सपना तक भी कुछ लषण मिलते हैं परन्तु मौजूदा युग खोजका है, न हो सकती। माजकी खोजोंने सिद्ध कर किया है कि प्राचीन जैन वर्तमानकालमें भी जेसलमेर भादि प्रान्तों में जो भाषा ज्ञान भंडारोंमें अपभश साहित्य विशाल रूपमें उपस्थित बोली जाती है उममें बहतम्मे अपभ्रंश भाषाके रूप पाये है, जोकि भारतीय साहित्यकी अमूल्य निधि। जाते हैं । यो तो सजस्थानीय और अपभ्रंश भाषाका परस्परमें घनिष्ट संबंधही । तत्वार्थसूत्रका अन्तःपरीक्षण [ लेखक- ६० फूलचंद्र शास्त्री ] नस्वार्थसूत्रक दो सूत्रपाठ पाये जाते हैं, जिनमेंसे किं नु खलु पात्मने हिनं स्वादिति । स चार मोहनि । एक दिगम्बर मंप्रदायमें और दूसग श्वेताम्बर म एव पुनः प्रत्यार कि स्वरूपोऽमो मोरचास्य प्राप्युसंप्रदायमें प्रचलित है। दिगम्बर संप्रदायमें प्रचलित पाच इनि पाचार्य शिवशंपनियतकर्ममयकक्षकसूत्रपाठपर पूज्यपाद स्वामी द्वारा रची गई सबसे स्वासरीयात्मनोऽपिस्वाभाविकज्ञानादिगुणमन्यावाचसुल पुरानी 'सर्वार्थमिद्धि' नामकी एक वृत्ति है । इसकी मात्यन्तिकमवस्थातरं मोर इति । xx तस्य म्वरूपमनउत्यानिकामें पूज्यपाद् म्वामी लिखने हैं- बमुत्तरत्र परवामः" (इत्यादि) "कविarixx मुनिपरिसरमध्ये मविषxx अर्थ-किसी भन्यने निर्गन्धाचार्यवर्यको प्राप्त निपचापमुक्सा सचिन परिणति स्म । भगवन् होकर विनयसहित पूछा-हे भगवन मात्माका हित
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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