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अनेकान्त
(वर्ष ४
ये, ऐसा वस्मीगुहसेनके तान्नपहसे' फलित होता है। महर्षि पतंजलिने भी अपने भाष्यमें भरभंश शब्दका
योतो प्राकृतग्रंथ पउमचरिथमें जोकि ईसाकी प्रथम शताब्दि प्रयोग किया है। महाभाष्यन्तर्गत गावी, गोणी पादि के तीसरे वर्षमें लिखा गया था-अपभ्रशके कतिपय बक्षण शब्द जैन साहित्य में भी दृष्टिगोचर होते हैं, जो भाषापाये जाते हैं, पर पोषक प्रमाणके प्रभावसे विद्वान लोग अन्वेषकों के लिये बड़े कामकी चीज़ हैं। काम्यादर्श और उसकी इतनी प्राचीनता स्वीकृत नहीं करते । कवि कुलतिलक काम्यालंकार आदि उचकोटिके साहित्यग्रंथों में भी अपभ्रंश कालिदास विक्रमोर्वशीय नाटकान्तर्गत विषित पलवाकी भाषाके लक्षण पाये जाते हैं। उक्ति छन्द और रूप दोनों के विचारसे अपभ्रंशकी कुछ न दशवीं शताब्दिमें महाकवि राजशेखरने काम्य-मीमांसा कुछ छाया अवश्य प्रतीत होती है। इससे अपनशका काल नामक सुंदर ग्रंथकी रचना की है, उसमें बताया गया है कि २०० वर्ष और भागे चला जाता है।
मरुभूमि ठक्क' एवं भावानक५ निवासी अपभ्रश भाषाका कविचण्डने, जो ईसकीकी तीसरी शताब्दिमें हो गये हैं प्रयोम करते हैं। इसके सिवाय, उक्त ग्रंथमें यहां तक भी (डाक्टर पी०डी० गुणे ने चडका अस्तिस्वकाल ईसाकी लिखा है कि अपभ्रंश भाषाका जितना भी साहित्य कही शताब्दी निश्चत किया है. अपने प्राकृत व्याकरणमें परिचवमें प्रारहा है वह प्रायः पश्चिम भारतका ही है। अफ्नश भाषाका उल्लेख किया है, और मात्र एक ही सूत्रमें इस पश्चिमी अपभ्रशकी प्रधानताका एक कारण यह उसका लक्षण समाप्त कर दिया है, किन्तु उस मरण और भी था कि वैदिक मतानलम्बी विद्वात् उस समय अपनी नवमी, दशमी शताग्दिके लक्षणों में उतना ही अन्तर पाया संस्कृत भाषामें ही मग्न थे । उनकी सारी साहित्य-रचना जाता है जितना जमीन और पासमानमें । चपडकालीन गीर्वाण-गिरामें ही होती रही, जनताकी बोलचालकी अपभ्रंश भाषाक नम्ब तौर अशोककी वे प्रशस्तियां हैं भाषामें रचना करनेकी उन्होंने कोई पर्वाह नहीं की। जो शाहवाजगदी और मनसाराकी शिलाभोंपर उत्कीर्ण है, बनारसमें जब सर्व प्रथम तुलसीदासजी गय थे तब उनकी और जिसं जनरल कनिंगहामने उत्तर भारतकी भाषा बताया कविताकी उतनी कदर नहीं हुई थी जितनी आज हो है। अपभ्रंश भाषाका सर्व प्रथम परिचय भरतमुनिके नाटय रही है। इस बोलचाजकी भाषाकी ओर ध्यान देने शाससे मिलता है, जिसका निर्माणकाल विक्रमकी दूसरी वाले मुख्यतः जैन विद्वान ही हुए हैं जिनका प्रावल्य
और तीसरी शताग्निके बादका नहीं हो सकता। उसमें भरत प्रायः पश्चिमी भारतमें ही था और वे मुख्यतः जैन मुनिने सात विभाषामोंका उस्लेख किया है, जिस परसे सहज ही में अनुमान किया जासकता है कि उस समय
(२) भूयांसोऽपशब्दाः अल्पीयांमः शब्दाः । एकैकस्य हि प्राकृतभाषा विदयोग्य भाषा थी और उसका अपभ्रष्ट रूप
शब्दस्य बहवोऽपशाः तद्यथा गौरियस्य शनस्य गावी
गोणी-गोता गोपोतलिका इत्येवमादयोऽपभशाः। तत्कालीन लोक भाषा थी। उक्त ग्रंथमें यह भी बताया गया है मिन्धु, सौवीर एवं तत्मविकट पहाडी प्रदेशमें उकार (३) मारवाड । (५) पूर्वी पंजाब। का बाहुल्य पाया जाता है। यही बक्षण अपभ्रश भाषामें (२) यह भादामक कहाँ स्थित है? यह एक पाया जाता है ताव स्पष्ट ही है कि उस समयमें भारतकी महत्वका प्रश्न है। नन्दसाव इसे भागलपुरके समीप बताते देश भाषा अपभ्रंश थी। यही देश भाषा क्रमश: उच्च हैं, लेकिन यह कथन ठीक प्रतीत नहीं होता। संभवतः यह बोटिके साहित्यकी रचमामें भी प्रयुक्त होने लगी थी, यहां स्थान पश्चिम भारतमें ही होना चाहिए, कि मरू और तक किबोबडे राजा महाराजा इस भाषाके कवियोंको ठक्क दो प्रदेश पश्चिम भारतके हैं। रामस्वामी शासी भातादस्था में बने मोरवसाय स्थान दिया करते थे। मककी स्थिति सतरज एवं पिनशनके बीच बनाते हैं। मेरे १"संस्कृन-प्राकाशभाषात्रयप्रतिषद प्रबन्धरममा निपुण लबालसे वर्तमान में जोधपुर राज्यातर्गत जो भावामको तारमः" । समगुहसनक शिलाल संवत्सं बहोडी भावामकहीं यों कि यह मारवादक १२६सको मिलते हैं।
समीप है। यहां पर खीची राजपूतों का सामान्य है।