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________________ * ॐ महम् * तत्व-तधातक तत्त्व-प्रकाशक नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। -- - -- वर्ष ४ किरण ३ वीरसंवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) मरसावा जिला सहारनपुर बैशाख, वीर निर्वाण सं०२४६७, विक्रम सं० १९६८ अप्रैल १९४१ एक अनूठी जिन-स्तुति श्री जिनदेव-जैनतीर्थकर-अपनी योगसाधना एवं अन्त-अवस्थामें वस्त्रालंकारो तथा शस्त्रास्त्रोसे रहित होते हैं, ये सब चीजें उनके लिये व्यर्थ हैं। क्यो व्यर्थ हैं ? इस भावको कविवर वादिराजमरिने अपने 'एकीभाव' स्तोत्रके निम्न पद्यमें बड़े ही सुन्दर एवं मार्मिक ढंगसे व्यक्त किया है और उसके द्वारा ऐसी वस्तुअोसे प्रेम रखने वालोकी असलियत को भी खोला है। इसीसे यह स्तुति जो सत्यपर अच्छा प्रकाश डालती है, मुझे बड़ी ही प्यारी मालूम होती है और बड़ी ही शिक्षापूद जान पड़ती है। -सम्पादक] आहार्येभ्यः स्पृहयति परं यः स्वभावादहयः, शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः । सर्वाङ्गेषु स्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषाम् , तत्किं भूषा-वसन-कुसुमैः किं च शस्त्ररुदस्त्रैः ॥ हे जिनदेव, शृंगारांके लिये बड़ी बड़ी इच्छाएँ वही करता है जो स्वभावसे ही अमनोग अथवा कुरूप होता है, और शस्त्रोका ग्रहण-धारण भी वही करता है जो वैरीके द्वारा शक्य-जय्य अथवा पराजित होनेके योग्य होता है; आप सर्वांगोंमें सुभग है-कोई भी अंग आपका ऐसा नही जो असुन्दर अथवा कुरूप हो-और दूसरोके द्वारा श्राप शक्य भी
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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