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किरण ८]
प्रतिमा लेख संग्रह और उसका महत्व
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प्रतिमा ता लेखान्त-मार्गमें सुन्दर चित्र पालग्वित श्वेताम्बर संप्रदायकी मूर्ति के अंत भागमें भी 'प्रणहोता है। ऐसे चित्र मैंने श्वेताम्बर सम्पदायान्तर्गत मंति' शब्दका उल्लेख पाया जाता है लेकिन वह अपअंचलगच्छके प्राचार्यों की प्रतिष्ठित की हुई मूर्तियोंमें बादिक है । इसके सिवाय दिगम्बर शिला व प्रतिमा विशेषरूपसे देखे हैं । धातु पतिमा लेख इतने स्पष्ट लेखोंमें अधिकतर शक संवत्का उल्लेख पाया जाता
और सुवाच्य अक्षरों में लिख होते हैं कि मानो सुन्दर है, जब कि श्वेताम्बर लेखोंमे प्रायः विक्रम संवतका । हस्तलिखित पुस्तक ही हो । अर्थात् हम्त-लिखित इस विषय में मैंने एक विद्वान्स पूछा था, उन्होंने एमा पुम्नको अक्षरोसे ये प्रतिमालेख बड़ी सहूलियतसं कहा कि वि० सं० की ऐतिहासिकतामें विद्वानोंका मुकाबला कर सकते हैं।
बड़ा भारी शक हैं और शक संवत्-प्रर्वतक महाराजा धातु-प्रतिमालख्ख श्वेताम्बर व दिगम्बर भेदकी सातवाहन जैनी थे, इसीलिये शक संवतका उल्लेग्य वजहसे दो भागोमे विभाजित है। पश्चिम भारत व बड़े गौरवस किया जाता है। सातवाहनके जैनत्यके गजपूताने के अधिकतर प्रतिमालेख श्वेताम्बर संप्र- विषयमें मुझे कोई आपत्ति नहीं, परन्तु वि० सं० को दायसं संबन्ध रखते हैं और दक्षिण भारत के लेख अनैतिहासिक बतलाना नितांत गलनी जान पड़ता है। विशेषतः दिगम्बर संप्रदायमं । इमका प्रधान कारण हाँ! ऐमा हो सकता है कि दक्षिण में शक संवत्का यही जान पड़ता है कि प्राचीनकालसं पश्चिमी भारत उपयोग ज्यादा किया जाता हो और गुजगतम म श्वताम्बर्गका और दक्षिण भारतम दिगम्बगेका विक्रमका। प्रभुत्व रहा है।
प्रतिमालेग्वमंग्रहको देन पूर्व हम यहां पर एक ___ यहाँ जो लेग्य मैं आपके मन्मुग्व उपस्थिन कर बान और प्रकट करना चाहते हैं वह यह कि प्रतिमारहा हूँ व मब दिगंबर संप्रदायसं संबंध रग्बन हैं। लग्व-संग्रहकी प्रणाली हालमें ही शुरू नहीं हुई बल्कि प्रतिमा लग्बोका जो लिपिकौशल्य श्वेताम्बर मूर्तियोमे पूर्वकाल में भी वह पाई जाती है। आजस कोई १०० पाया जाता है वह खेद है कि दिगंबर मूर्तियाम मरं वर्ष पहिले वि० सं० १९०० में एक यतिजी सिद्धाचल दम्बनमें नहीं पाया । यह बात ऐतिहामिक होनस जी की यात्राकं लिये गये हुए थे उन्होंने वहां कई यहां लिस्वनी पड़ती है। एक बात और भी है और शिला व प्रतिमा-लेखोंकी ज्योंकी त्यों (कापीटकापी) वह यह कि दिगम्बर तथा श्वनाम्बर संप्रदायाम प्रतिलिपि की थी, वह कापी ऐतिहासिक दृष्टिसं बड़े प्रतिमा व शिलालेग्वोंकी लग्खन - प्रणाली भिन्न २ महत्त्वकी है और मेरे संग्रहमें सुरक्षित है । एक और मालूम होती है। पहले संवन्, उपदंशक भट्टारकका भी प्राचीन लेखोंकी प्रतिलिपिकी पति मेरे प्रहम नाम, पीछे मूर्ति बनवाने वाले का नाम व अंतमें है। जिममें के लंम्ब महिमापुर-मंदिर-पशस्ति और भगवानके नामके बाद नित्यं प्रणमंति' यह प्रणाली बीकानेर नरेश सूरतसिंहजीके साथ विशेष संबन्ध दि० संप्रदायकी है। श्वे. संप्रदायमें संवत् निर्देश रखते हैं । पतिलिपि करने वाला क्षमा-कल्याणजीकी करने के बाद प्रतिमा बनवाने वालेका, भगवानका, परंपराका होना चाहिए, क्योंकि इसमें उक्त मुनिजी प्रतिष्ठित प्राचार्य व नगरका नाम आता है । यद्यपि की पतिष्ठित की हुई मूर्तियों के लेखोंकी बाहुलता है।