SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२८ अनेकान्त [वर्ष ४ बहुत प्रचलित है। इसमें भी मुग़ल ममयकी बनी उतना ताकालाकि ग्रन्थों पर नहीं । आज हुई धातु प्रतिमाएँ प्रचुर मात्रामें यत्रतत्रोपलब्ध होती हम देखते हैं कि एक एक शब्दको पढ़ने के लिये है। इसका प्रधान कारण यही होना चाहिए कि वे परातत्त्व विभागों के द्वाग हजागं रुपयोंका व्यय किया लोग मुमलमान मजिदको छोड़कर मभी मजहबक जाता है। जैन मंदिरों में धातुकी प्रतिमाओंकी बहुमंदिरों व पुगतनावशेषों को नष्ट करनेमें ही अपनी लता रहती है, प्रायः प्रत्येक प्रतिमाके पीछेक भागमें महान् वीरता समझते थे । (अजन्टाकी गुहाओंमें की लख उत्कीर्ण होता है, उसमें प्रतिमा बनानेवालंका बहुत सी प्राचीन और कलापूर्ण बौद्ध मूर्तियोंके नाक, नाम तथा प्रतिष्ठा करवानेव लेका नाम, प्राचार्य व हम्त आदि अवयव मुग़लोन नष्ट-भ्रष्ट कर दिये हैं ) भट्टारकका नाम, और भी अनेक ऐतिहासिक बातें इसवास्ते जैनी लांग प्रायः ध तुकी मूर्तियाँ बनाकर खुदी हुई रहती हैं। प्रतिमाकं लेग्योंमें अनेक बातों पूजन करते थे। शिल्पशास्त्रका नियम है कि गृह- का पता चलना है; जैम कौन कौन जातियोंने प्रनिमंदिर में ११ अंगल तककी प्रतिमा ही होनी चाहिए। माएं बनवाई. वर्तमानम उन जातियोंमेस जैनधर्मका यद्यपि विशालकाय धातुमूर्तियाँ पाई जाती है, वे कौन कौन जातियाँ पालन करती हैं । कौनस गच्छ शिखरबंद जैन मन्दिरमें स्थापित की जाती थी। मुग़ल या संघक आचार्य व भट्रारक प्रतिष्ठा करवाई. समयमें शिखरबंद जैनमंदिर भी पाये जाते हैं । जैना- वर्तमानमें कौन कौन गच्छ उनमेंस विद्यमान हैं, चाोंने गजदरबारम जाकर मुगलसम्राटको स्वाचरण श्राचार्यों व भट्टारकोंकी शिष्य-परमपग, गजाओं, संरंजित कर काफी सन्मान संपादन किया, इस इति- मंत्रियों व नगरोंके नामादिक । और भी अनेक महहास बतला रहा है। खरतरगच्छीय श्री जिनप्रभसूरि त्वपूर्ण बातें प्रतिमा-लेग्वोंसे ही जानी जा सकती हैं। और प्राचार्य श्री जिनचंद्रसूरिजी इसके उदाहरण प्राचीन प्रतिमाओंक देवने यह भी मालूम होजाता रूप हैं। मेरे खयालमें जबसे जैनाचार्योंका गजदरबार है कि तत्कालीन कला-कौशल्य कितने ऊँके दर्जेका से विच्छेद हुआ तबस जैन समाजकी कुछ अवनति था, कौनसी शताब्दिमें किस ढंगम पतिमाएँ बनाई ही पाई जाती है । खैर ! जो कुछ हो, आज जैन जाती थीं तथा लिपिमें किस शताब्दिमें कैमा परिवसमाज की संख्या दूसरोंकी अपेक्षा अल्प है, फिर भी र्तन हुआ । इत्यादि । ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि में भी भारतीय समाजोंमें जैन समाजका स्थान बहुत ऊँचा है। पतिमालेखोंका स्थान महत्वका है। कौनस सालमें, प्रतिमालेखोंकी उपयोगिता कौनसे मासमें अविवृद्धि(?) हुई थी यह पतिमालेखों में प्रतिमालेखोंकी ऐतिहासिकता इसलिये अधिक लिखा रहता है । मैं अनुभवसं कह सकता हूँ कि २५ मानी गई है कि उनपर किंवदन्तियों व अतिशयो- या ५० वर्षों में लिपिमें अवश्य परिवर्तन पाया जाता क्तियोंकी असर अधिक नहीं गिर सकती । क्योंकि है। उदाहरणार्थ १४५० की प्रतिमापर खुद हुए लेख लिखनेकी अगह कम होनेसे मुख्य मुख्य बातें ही को देखता हूं यब उस लिपिकी मरोड़में बहुत कुछ मलिखित होती हैं। और इसीलिये विद्वत्समाज अंतर मालूम पड़ता है। धातु पनिमाओंके लेख पायः जितना विश्वास उत्कीर्ण लेखों पर रखता है । पड़ी मात्रामें लिखे हुए पाये जाते हैं । किसी किसी
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy