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________________ विवाह और हमारा समाज (लेखिका-श्री ललिताकुमारी पाटणी 'विदुषी', प्रभाकर) ['अनेकान्त' के पाठक श्रीमती ललिताकुमारीजीसे कुछ परिचित जरूर हैं-आपके लेखोंको अनेकान्तमें पढ़ चुके हैं। आप श्रीमान् दारोगा मोतीलालजी पाटणी, जयपुरकी सुपौत्री हैं और शिक्षा तथा समाजसधारके कामोंसे विशेष प्रेम रखती हैं। हालमें ओपने अपने विवाहसे कुछ दिन पूर्व, अपनी भावज सुशीला देवीके अनुरोधपर "विवाह और हमारा समाज" नामकी एक छोटीसी पुस्तक लिखी है, जिसमें पाँच प्रकरण हैं-१ विवाह क्या है ?, २ विवाहका उद्देश्य, ३ विवाह कब किया जाय ?, ४ बेजोड़ विवाह और ५ वैवाहिक कठिनाइयाँ । यह पुस्तक उक्त सुशीला देवीने अपने 'प्रकाशकीय' वक्तव्यके साथ छपाकर मँगसिर मासमें विवाहके शुभ अवसरपर भेंटरूपमें वितरण की है और अपनेको समालोचनार्थ प्राप्त हुई है। पुस्तक सुन्दर ढंगसे लिखी गई है। विचारोंकी प्रौढता, हृदय की उदारता और कथनकी निर्भीकताको लिये हुए है, खूब उपयोगी है और प्रचार किये जाने के योग्य है। विवाह-विषयमें स्त्रीसमाजकी ओरसे यह प्रयत्न निःसन्देह प्रशंसनीय है । ऐसी पुस्तकोंका विवाह जैसे अवसरोंपर उपहारम्वरूप वितरण किया जाना समाजमें अच्छा वातावरण पैदा करेगा। अस्तु; यहाँ पाठकोंकी जानकारीके लिये पुस्तकके शुरूके दो अंश नमूनेक तौरपर नीचे दिये जाते हैं। -सम्पादक] विवाह क्या है ? राजनैतिक और धार्मिक जीवन भी सम्मिलित है। जिस तरह विवाह स्त्री पुरुषोंक मामाजिक-कौटुम्बिक विवाहके सम्बन्धमें कलम उठानेके पहले स्वभावतः भादि जीवनको परस्पर मिला देना है, उसी तरह यह सवाल उठता है कि विवाह है क्या वस्तु ? विवाह विवाह उनके धार्मिक और राजनैतिक जीवनका भी का जो शाब्दिक अर्थ निकलता है वह है-विशेष एकीकरण करता है। अर्थ यह हुआ कि विवाहके रूपसे वहन करना यानी ढोना । कौन किसका वहन पहले जो स्त्री-पुरुष अपने हरएक आचरणमें स्वतन्त्र करे ? उत्तर होगा-स्त्रीका पुरुषको वहन करना और थे, वृत्तियोंमें स्वच्छन्द थे और जीवनचर्या में स्वाधीन पुरुषका स्त्रीको वहन करना। अर्थात्-स्त्री और पुरुष थे, वे ही स्त्री-पुरुष विवाह के बाद अपने हरएक कार्यदोनोंके अभिन्न होकर एक दूसरेको वहन करनेकी कलापमें एक दूसरेका सहयोग प्राप्तकर उसे पूर्ण करते प्रक्रियाका प्रारम्भ होना विवाह है । इस प्रक्रियामें स्त्री हैं। इसीलिये विद्वान् समाज-वेत्तात्रों की सम्मतिमें और पुरुष दोनों ही अपने सांसारिक जीवनको विवाह एक धार्मिक और सामाजिक पवित्र बन्धन है, अभिन्न होकर वहन करते हैं। यहां सांसारिक जीवन जिसमें परिबद्ध होकर स्त्री और पुरुष दोनों गृहस्थाश्नम से सामाजिक, कौटुम्बिक, लौकिक और गृहस्थ जीवन के उत्तरदायित्वको आपसमें बांट लेते हैं। यह बन्धन से ही तात्पर्य नहीं है, किन्तु सांसारिक जीवनमें जीवन-पर्यन्त अटूट और अमिट बना रहता है। वह
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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