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किरण १]
नस्वार्थमूत्रके पोजोंकी म्बोज
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तत्त्वाथ
उपस्थित नहीं था, जो साहित्य उपस्थित था उसीपर वह अनेकान्तकं इसी विशेषाङ्कमें जानी चाहिये । से वे अपना उक्त मन्तव्य स्थिर करनेके लिये बाध्य यद्यपि समय बहुत कम रह गया था, फिर भी हुए जान पड़ते हैं। और इसीसे आप अपने हिन्दी- मैंने दिनरात परिश्रम करके श्री कुन्दकुन्दाचार्यके विवेचन - सहित तत्त्वार्थसूत्रकी 'परिचय' नामक उपलब्ध ग्रंथों और 'धवला' टीकामें पाए जाने वाले प्रस्तावनामे लिखते हैं-"वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर षट्खण्डागमपर एक सरसरी नजर डाल कर तत्त्वार्थपरम्परामें हुए दिगम्बरमें नहीं ऐसा खुद मेरा भी सूत्रके बीजोंकी जो खोजकी है उस मैं आज इस लेखके मन्तव्य अधिक वाचन-चिन्तनकं बाद आज पर्यंत साथ अनेकान्तके पाठकोंके सामने रख रहा हूँ । स्थिर हुआ है। साथ ही, अपनी यह अधिलाषा भी खोजके ममय मेरी दृष्टि शुरू शुरूमें शब्दशः बीजोंके व्यक्त करते हैं कि “दिगम्बर परम्परामें विद्यमान और संग्रहकी ओर रही और बादमें वह अर्थशः बीजोंके सर्वत्र आदरप्राप्त जो प्राचीन प्राकृत-संस्कृत शास्त्र हैं संग्रहकी ओर भी प्रवृत्त हुई; इम दृष्टिभेद, सरसरी उनके माथ भी तत्त्वाथ (सूत्र) का समन्वय दिखाया नजर और शीघ्रताकै कारण कुछ बीजोंका छूट जाना जाय।" ऐसी हालतमें यदि आपके सामने दूसग संभव है, जिन्हें पुन: अवलोकनक अवसरपर संग्रह प्राचीन साहित्य आए तो आपका उक्त मन्तव्य करके प्रकट किया जायगा । इसके सिवाय, 'महा बदल भी सकता है।
बन्ध' नामका जो विस्तृत छठा खण्ड है और जो
षटखण्डागमक पहले पाँच वण्डोंस पंचगुना बड़ा है मूल आधारको मालूम करनक लिये उन बीजोंको ग्वाजनकी खाम जरूरत है जिनसे ।
वह अद्यावधिपर्यंत मुझे देखनेको नहीं मिला-उस इम तत्त्वार्थशास्त्र के सूत्रों का शब्द अथवा अर्थरूपमें
की प्रति अभीतक मूडबिद्रीक भण्डारसं बाहर ही नहीं
आई है। उसमें तत्त्वाथसूत्रक बहुतस बीजोंवी भाग उद्भव संभव हो और जिनका अस्तित्व इस सूत्रग्रंथ
संभावना है। यह ग्रंथ जब प्राप्त होगा तभी उसपरसे की उत्पत्तिस पहल पाया जाता हो । ऐम बीजोंकी ग्वाज के लिय दिगम्बर सम्प्रदायकं कुन्दकुन्दाचार्य
। शेष बीजोंकी ग्वोज की जायगी । क्या ही अच्छा हो,
यदि काई उदार महानुभाव मुडबिद्रीसे उसकी शीघ्र प्रणीत आगमग्रंथों और श्री भूतबल्यादि-श्राचार्य
कापी कगकर उसे वीरसवामन्दिरको भिजवा देवें । विचित 'पट् ग्वण्डागम' जैसे प्राचीन ग्रंथ बहुत ही
'ऐमा हानपर खंजका यह काम जल्दी ही सम्पन्न तथा उपयुक्त हैं; क्योंकि ये मत्र ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्रस पहले के बन हुए हैं । मग इच्छा बहुत दिनोंसे इन ग्रंथोंका।
__ पूर्ण हा सकंगा । अस्तु । तुलनात्मक अध्ययन करनेकी था; परन्तु अवसर नहीं वर्तमानमें जो ग्याज पाठकोंके सामने रखी मिल रहा था और इधर षटखण्डागमादिको लिय जाती है उससे यह बिल्कुल स्पष्ट है और विद्वानों को हुए धवलादि ग्रंथोंको प्राप्तिका अपने पास कोई साधन विशेष बनलाने की जरूरत नहीं रहती कि तत्त्वार्थभी नहीं था। इमस इच्छा पूर्ण नहीं होरही थी। सूत्रके बीज प्राचीन दिगम्बर-साहित्यमें प्रचुरताक हालमें पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ( सम्पादक साथ पाए जाते हैं, और वे सब इम बातका मूचित 'श्रनकान्त' ) 'जैनलक्षणावली' आदि कार्यों के लिये करते है कि तत्त्वार्थसूत्रका मूल आधार दिगम्बरीय देहली आदिसे धवलादिकी प्रतियाँ प्राप्त करनमें सफल आगम-माहित्य है, और इसलिये वह एक दिगम्बर हासक हैं, और जब यह निश्चय होगया कि ग्रंथ है, जैसी कि दिगम्बर मम्प्रदायकी मान्यता है। 'अनकान्त' को अब वीर-संवा-मन्दिर से ही निकाला यह खाज ऐतिहासिकों नथा संशोधकोंके लिये बहुत जायगा तब आपका यह अनुरोध हा कि तत्त्वार्थ- ही उपयोगी तथा कामकी चीज़ होगी और वे इसे सूत्रके बीजोंकी खाज अब जरूर होनी चाहिये और माथमें लेकर तत्त्वार्थसूत्रके मूलमांतका अथवा