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________________ २१८ भनेकान्त [वर्ष ४ 'उसे भैय्या नहीं, शत्र कहां ! वह राज्यका कलंक उसका निवास है। है। धार्मिक दृष्टिकोणसे पापी है, और नैतिक-सिद्धांत मरुभूतिकं मनमें पाया-'भैय्याका एकबार के मुताविक अपराधी है। उमं छोड़ देना मेरे लिए देख पाए । बहुत दिनस उन्हें देखा जो नहीं है। अन्याय है, पक्षपात मूलक-बात है।' हिम्मत बांधकर महागजम प्रार्थना की-भैय्या पसी समय कमठका बांधे हुए, सिपाही ल ाते को प्रणाम करने जाना चाहता हूं, बहुत याद सताती हैं। वह एक और बड़ा हो जाता है। है मुझ । आग्रह है, आजा मिल जाय तो अच्छा हो।' महाराज अरविन्द हुक्म देते हैं-'इतनं गुरुतर बाल-'मरुभूनि ! शायद तुम्हाग जीवन अपराधकं बदलेमें यदि पाण-दण्ड भी दिया जाए तो ग़लतियाँ करने के लिए ही बना है। समझते होगेवह कम है। लेकिन प्रधान-मंत्रीके आग्रहपर मैं तुझ कमठ अब मंन्यासी हो गया है, दुष्टता छोड़दी होगी। जीवनदान देना हूँ । और हुक्म देता हूँ कि इस पर नहीं उम जैमा श्रादमी मंन्यामी होकर भी करना दुराचारी, पापीको काला-मह कर, गधे पर चढ़ाया सं विमुग्व हो जाए, इम मैं मानने को तैयार नहीं। जाय और नगर-परिक्रमणके बाद देश निवोमन हाँ. कंचली छाडदा होगी, पर, विष नहीं छोड़ा होगा।' दण्ड । ___'पर, व मेरे भाई हैं। उनकी धमनियोमे जा ममभूनिकी आँखें डबडबा रही हैं-जैसे विवशना रक्त है, वही मेरा जीवन-साधन है । इमलिए कि वे पानी बन कर बहने जा रही हो। दोनों एक है, एक तरहके हैं। वे जुदे रह कर भी और कमठ' . .? जैन गैद्ररमकी सजीव प्रतिमूर्ति मिलने के लिए लालायित हैं।' हो ! उसकी आँग्वोंमें झूल रहा था-विद्रोह ।। महाराजकी इच्छा तो नहीं। पर, मरुभूतिका x x x x अटल आग्रह है। और मरुभूतिस महाराजको है कुछ प्रेम, शुरुसे ही । तबियत न दुखे इस लिए कभी बहुत दिन गुजर गए। कह भी देते हैं । बोले-'चले जाना । लेकिन ठहरना पर, एक दिन भी ऐसा न हुआ, जब मरुभूति, नहीं । लौटना जल्द ।' कमठकी यादको मन भुला सका हो । हृदयमें घाव मरुभूतिका मन खुशीस भर गया । गद्गद् कण्ठ मा हो गया था और जीवनमें एक प्रभाव-सा। से कहने लगा-'जरूर, जल्दो ही लौटकर महाराजकी ___ टोह वह हमेशा लेता रहा कि भैय्या अब कहां, सेवामें आना है, यह भूलूँगा नहीं।' कैसे, किस तरह रहते या क्या करते है ? दुखमें तो x x x नहीं हैं ? पर, वह उनसे मिलने न जा सका। महाराजकी अनिच्छाके मबब । दूरम दवा__ उस दिन सुना-कमठ तपस्वी बन गया है। एक भारी पत्थर दोनों हाथों में उठाये, बांहें प्रभु-भजनमें उस रस आने लगा है, पंचाग्नि तपता आकाशकी ओर ऊँची किये, एक संन्यासी खड़ा है, शूलासन-शयन करता है । संन्यासी-आश्रममें हुआ है । उसका पोरश्रम-पूर्णतप उसके अपने
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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