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________________ १५४ अनेकान्त [वर्ष ४ वाले पद्यमें वह उल्लेख नहीं है और उसका कारण घ्यर्थक पद्य बहुधा ग्रंथों में पाये जाते हैं। इसमें बुद्धिधृद्धि पद्यक अर्थपरसे यह जान पड़ता है कि यह पद्य के लिये जिस ' यतिपति' को नमस्कार किया गया है तत्त्वार्थसूत्रकी उस टीकाकी प्रशस्तिका पद्य है जिसे उससे एक अर्थमें ' श्रीवर्द्धमानस्वामी' और दूसरेमें शिवकोटि प्राचार्यने रचा था, इसी लिये इसमें 'समंतभद्रस्वामी' का अभिप्राय जान पड़ता है। तत्त्वार्थसूत्रके पहले 'एतत् ' शब्दका प्रयोग किया यतिपतिक जितने विशेषण हैं वे भी दानोंपर ठीक गया है और यह सूचित किया गया है कि 'इम' घटित होजाते हैं। 'अकलक-भावकी व्यवस्था करने तत्त्वार्थसूत्रको उस शिवकोटि सूग्नेि अलंकृत किया वाली सन्नीति (स्याद्वादनीति ) के सत्पथको संस्कारित है जिसका देह तपरूपी लताके पालम्बनके लिये यष्टि करनेवाले' ऐसा जो विशेषण है वह समंतभद्रके बना हुआ है । जान पड़ता है यह पद्य उक्त टीका लिये भटाकलकदेव और श्रीविद्यानंद जैसे प्राचार्योपरसे ही शिलालेखमें उद्धत किया गया है, और इस द्वारा प्रत्युक्त विशेषणोंस मिलता-जुलता है। इस पद्य दृष्टि से यह पद्य बहुत प्राचीन है और इस बातका के अनन्तर ही दमरे लक्ष्मीभृत्परमं ' नामके पद्यमें, निर्णय करनेके लिये पर्याप्त मालूम होता है कि जो समंतभद्रक संस्मरणों (अनं० वर्ष २ कि० १०) 'शिवकोटि' प्राचार्य स्वामी समंतभद्रके शिष्य थे। में उद्धत भी किया जा चुका है, समंतभद्रके मत पाश्चर्य नहीं जो येशिवकोटि' कोई गजा ही हुए (शासन ) को नमस्कार किया है। मतको नमस्कार हों । देवागमकी वसुनन्दिवृत्तिमें मंगलाचरणका कग्नंस पहले खास समन्तभद्रको नमस्कार किया प्रथम पद्य निम्न प्रकारसं पाया जाता है - जाना ज्यादा संभवनीय तथा उचित मालूम होता है। सार्वश्रीकुलभूषणं क्षनम्पिं सर्वार्थसंसाधनं इमके सिवाय, इस वृत्तिके अन्तमें जो मंगलपद्य सन्नीतेरकलंकभावविधतेः संस्कारकं मत्पथं । दिया है वह भी द्वयर्थक है और उममें साफ तौरसे निष्णातंनयमागरेयतिपतिज्ञानांशसद्भास्करं परमार्थविकल्पी 'समंतभद्रदेव' को नमस्कार किया भेत्तारं वसुपालभावतमसो वन्दामहे वुद्धये॥ है और दूसरे अर्थमें वही ममंतभद्रदेव ‘परमात्मा' यह पद्य तयर्थक 8 है, और इस प्रकारक द्वयर्थक का विशेषण किया गया है । यथाशिवायनं गूडिय श्रा मुनिपरलिये जिनदीक्षयनान्तु शिव- समन्तभद्रदेवाय परमार्थेविकल्पिने। कोट्याचार्यरागि। समन्तभद्रदेवाय नमोस्तु परमात्मने ॥ * इससे पहले के 'समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्' और 'स्या- इन मब बातोंसे यह बात और भी दृढ़ हो जानी त्कारमुद्रितसमस्तपदार्थपूर्ण' नामके दो पद्य भी उसी टीकाके है कि उक्त 'यतिपति' से समन्तभद्र खास तौर पर जान पड़ते हैं और वे समन्तभद्रके संस्मरणोमें उद्धृत किये अभिप्रेत हैं। अस्तु, उक्त यतिपतिके विशेषणों में जाचुके हैं (अनेकान्त वर्ष २, किरण २,६)। + नगरताल्लुकेके ३५ वे शिलालेखमें भी 'शिवकोटि' प्राचार्य- भत्तारं वसुपालभावतमसः' भी एक विशे को समन्तभद्रका शिष्य लिखा है (E. C. VIII.)। षण है, जिसका अर्थ होता है 'वसुपालके भावांध•भ्यर्थक भी हो सकता है, और तब यतिपतिसे तीसरे अर्थ में है, जो वसुनन्दिश्रावकाचारकी प्रशस्तिके अनुसार नयनन्दीबसुनन्दीके गुरु नेमिचंद्रका भी प्राशय लिया जा सकता के शिष्य और श्रीनन्दीके प्रशिष्य थे।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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