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२६.
अनेकान्त
[वर्ष ४
सपत्नीक भा रहे हैं। तुम्हें भी पत्नी सहित शीघ्र आमंत्रणमें धोखा दिखाई दे रहा है। चाहती हूंपधार कर इसमें सहयोग देना चाहिए ।'-सुना आप एक बार म्वयं विचार कर देखें । ऐसा न हो प्रयोभ्यानरेश बड़ा भारी मेला करा रहे हैं। और कि कुछ ग़लन हो जाए-आपके दुखमें मुझे सुख न उसमें बुला रहे हैं मुझे और तुम्हें भी। बड़ा प्रेम मिल सकेगा-स्वामी!' । मानते हैं-हम लोगोंसे । तभी तो ?-और देखो, वीरसेन अमल में चन्द्राभामे देर तक वाद-विवाद यह नीचे क्या लिखा है-'अगर तुम लोग न आये, करनेके कारण कुछ झंझलाहटमें भर गए थे। और या देरसे आए, ता महाराज बहुत बुरा मानेंगे । तुम्हें अब हर बातका उत्तर अपनी अधिकार-सत्तासे देनेके पत्र पहुँचते ही तैय्यारियाँ शुरू कर देनी चाहिए। लिये कटिबद्ध थे-'मैं बहुत देरसे सब बातें सुन नहीं तो हमें दूसरा आदमी फिर भेजना पड़ेगा। यहाँ रहा हूं, अब अधिक कुछ सुनने की इच्छा नहीं है। बहुत नरनारी इकट्ठे हो चुके हैं। महोत्सव प्रारम्भ कुछ ग़लत हो या सही, मैं कर रहा हूं-ज़िम्मेदारी हुए कई दिन बीत चुके ।'-वोमिनन महाराज मधु उसकी मुझ पर है, तुम पर नहीं । समझती हो ?' का भामंत्रणपत्र पढ़ कर सुनाया।
___ चन्द्राभाको आँग्खों में आँसू भर पाए । हिचकीसी चन्द्रामा जाने क्या मांचती ?-चुप बैठी रही! लेते हुए बोली-मैं और तुम कभी अभिन्न थे, एकका फिर बोली-'यह पत्र में कई बार पढ़ चुकी। खूब दुग्व, दूसरेका दुग्व था। आज जुदाजुदा हैं।' मच्छी तरह पढ़ कर ही तो कह रही हूँ कि मुझे वीरसननं जमी हुई आवाजमें कहा-'हाँ। तभी अयोध्या न ले जाओ, न ले जाओ। तुम अकेले तो ?-मैं कहता हूँ और तुम उमं मानने को तैय्यार जाकर प्रायोजनमें हाथ बँटाओ, और मेरे लिए क्षमा नहीं।' याचना कर, महाराजको प्रसन्न करलो। नहीं, मैं x x x x कहती हूँ, मेग मन कहता है कि तुम्हें पछताना पड़ेगा-मेरे म्वामी।'
वसन्नोत्सवकी समाप्ति पर'तुम्हें मेरे पछताने या खुश होने से कोई वास्ता महागज मधु मभी आगन सज्जनोंगे दान नहीं। मैं कहूँ; उस मानना तुम्हारा धर्म है । मुझे जब सम्मान द्वाग सन्तुष्ट कर, विदा कर रहे हैं। सभी तुम्हारी रायकी जरूरत हो, तभी तुम्हें अपनी गय प्रमन्नमुख, मपत्नीक खुशी खुशी अपने घर जाते देनी चाहिए। जानती हो, मैं अपने महाराजकी हुए, महाराजके मधुर-व्यवहारकी, आदर-सम्मानकी अक्षरशः आज्ञापालनमें भानन्द लेना पाया हूं।'- और देन-दहेजकी प्रशंसा करते जाते हैं। एक पतिहृदयने विवाहित स्त्रीहृदय पर अपने वटपुरनरेश वीरमनकी बारी आई-सबके अधिकारका प्रदर्शन किया !
अंतमें ! भक्तिसं गद्गद् वीरसेन अगे बढ़े। चन्द्रामा चन्द्रामा बेबस थी। मौनके आगे संसारकी समीप ही थी, थोड़े फासले पर । हृदय उसका धड़क तरह।
रहा था । न जानें क्यों ? बोली-'प्राणाधिक ! मुझे अयोध्यानरेशक इस 'अच्छा, आप भी ?' मधुने कहा ।