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अनेकान्त
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राजा और जैनोत्तम३९ कहा गयाईस्वी सन १३४और मल्लिभूपाल. मल्लिरायका सस्कृत किया हुया रूप है, और १७६१ के मध्यवर्ती समय में हमें कर्णाटकके किसी ऐसे प्रधान मुझे इसमें कोई सन्देह नही है कि नेमिचन्द्र सालुव मल्लिजैन राजाका परिचय नहीं मिलता. और इसलिये हमें समझ रायका उल्लेख कर रहे हैं। यद्यपि उन्होंने उसके वंशका लेना चहिये कि मलिभूपाल शायद कर्णाटकके किसी छोटेसे उल्लेख नहीं किया है । १५३० ईस्वीके लेख्य में उल्लिराज्यका शासक था। जैन माहित्यके उद्धरणोंपर रष्टि डालने खित होनेसे, हम सालुव मल्लिरायको १६वीं शताब्दीके मे मुझे मालूम होता है कि 'मस्लि' नामका एक शासक कुछ प्रथम चरणमें रख सकते हैं, और उसके विजयकीर्ति तथा जैन लेखकोंके साथ प्रायः सम्पर्क को प्राप्त है। शुभचंद्र गुर्वा-विद्यानन्द विषयक सम्पर्क के साथ भी अच्छी तरह सगत जान बलीके अनुसार, विजयकीर्ति (ई. सन्की सोलहवीं शताब्दीके पड़ता है। इस तरह नेमिचंद्रके सालुव मल्लिरायके समकाप्रारम्भमें) मल्लिभूपाल के द्वारा सम्मानित हुया था। लीन होनेसे. हम सस्कृत जी. प्रदीपिकाकी रचनाको इसाकी विजयकीर्तिका ममकालीन होनेसे उस मल्लिभूपालको १६वीं १६वीं शताब्दीके प्रारम्भकी ठहरा सकते हैं।। शताग्दीके प्रारम्भमें रखा जासकता है। उसके स्थान और धर्म पं. नाथरामजी प्रेमी४५ने नेमिचंद्र की जी० प्रदीपिकाकी विषयका हमें कोई परिचय नहीं दिया गया है। दूसरे विशाल- क और प्रशस्तिका उल्लेख किया है. जोकि २६ अगस्त सन् कीीतके शिष्य विद्यानन्द स्वामी के सम्बन्धमें कहा जाता १११५ के जैनमित्रमें प्रकाशित हुई थी। उनके द्वारा दिये है कि ये मल्लिरायके द्वारा पूजे गये थे, और ये विद्यानन्द १२ ।
गये विवरण, ऊपर दी हुई दो प्रशस्तियोंके मेरे साक्षिप्तसारमें ईस्वी सन् १५४१ में दिवंगत हुए हैं। इससे भी मालूम प्राजाते हैं। वे महिलभूपालका उल्लेख नहीं करते । चूं कि होता है कि १६वीं शताब्दीके प्रारम्भमें एक मल्लिभूपाल था। उन्होंने कोई निष्कर्ष नहीं दिया है. इसलिये हम नहीं जानते हुमचका शिलालेख इस विषय को और भी अधिक स्पष्ट कर
कि यह चीज़ उनसे छटगई है या इस प्रशस्तिमें ही शामिल देता है-यह बतलाता है कि यह राजा जो विद्यानन्दके
नही है। प्रेमीजीने उस प्रशस्तिपरसे यह एक खास बात नोट सम्पर्क में था मालुव मल्लिराय ४३ कहलाता है। यह उल्लेख
की है कि सस्कृत जी. प्रदीपिका वीरनिर्वाण सम्वत् २१७७ हमें मात्र परम्परागत किम्बदन्तियोंसे हटाकर ऐतिहासिक
में, जोकि वर्तमान गणनाके अनुसार ईसी सन् १६५० के प्राधारपर लेभाता है। सालुव नरेशोंने कनारा जिलेके एक
बराबर है, समाप्त हुई है। यह समय मल्लिभूपाज़ और भागपर राज्य किया है और वे जैन धर्मको मानते थे।
नेमिचंद्रको समकालीन नहीं ठहरा सकता । चुकि असली ३९ देखो, ऊपरकी प्रशम्तियो ।
प्रशस्ति उद्धत नहीं की गई है, अतः इस उल्लेखकी विशेष४० जैनमिद्धान्तभास्कर, भाग १ किरण ४ पृ० ५४; और ताओंका निर्णय करना कठिन है । हर हालतमें, ईस्वी सन् भण्डारकर ओरियंटलरिसर्चइस्टिट्चटके एनाल्म XIII,
लारसच इस्टिट्यूटके एनाल्म XIII, १६५० जी० प्रदीपिकाकी बादकी प्रतिलिपिकी समाप्तिका i, पृ० ४।। ' गैनमिद्धान्तभास्कर, भाग ५ किरण ४ प्रशस्तिममह के समय है,नकि स्वयं जी०प्रदीपिकारचनाकी समाप्तिका समय। पृ० १२५, १२८ श्रादि ।
साराश यह कि, सस्कृत जी०प्रदीपिकाका कर्ता केशववर्णी ८२ डा० बी० ए० मालेटोरने विद्यानन्दके व्यश्चित्व एवं कार्यों नहीं है, यह बताने वाला कोई प्र
नहीं है, यह बताने वाला कोई प्रमाण नही है कि सस्कृत पर अक्छा प्रकाश डाला है। देखो मिडियावल जैनिज्म जी. प्रदीपिका गोम्मटसार की चामुण्डरायकृत कर्णाटकवृत्ति (बम्बई १९३८) पृ० ३७१ श्रादि, 'कर्णाटकके जैन के आधारपर है, नेमिचंद्र, जोकि गो०सारके कर्तासे भिन्न हैं. गुरुश्रोके संरक्षकके रूपमें देहलीके सुलतान' कर्णाटक सस्कृत जी०प्रदीपिकाके को हैं, और उनकी जी०प्रदीपिका
रफल क्वार्टरली, भाग ४, १-२. ०७७६. कमर जी०प्रदीपिकाकी, जोकि केशववर्णी द्वारा ईस्वी सन् 'वादीविद्यानन्द' जैन एण्टिक्वेरी,४ किरण १ प्र. १-२० १३५६ में लिखी गई हैं, बहुत ज्यादा प्राणी है और सालु ४३ एपिग्राफिया कर्णाटिका भाग, VIII. नगर नं.४६ मारलरायक समकाला
मल्लिरायके समकालीन होनेसे नेमिचंद्र (और उनकी जी. एपिग्राफिया कर्णाटिका, VIII प्रस्तावना पृ० १०, १३ प्रदीपिका) को ईसाकी १५. शताब्दीके प्रारम्भका ठहराया ४; शिलालेखोके आधारपर मैसूर और कर्ग (लन्दन जाना चाहिए। १९०६)पृष्ठ १५२-३: मिडियावल जैनिज्म पृष्ठ ३१८श्रादि ४५ मिद्धान्तमारादिसंग्रह: (बम्बई १९२२), प्रस्ताबना पृष्ठ १२