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किरण १]
गो. सारकी जी. प्रदीपिका
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कुरितु देशसंयममदुबायोपशमिकभावमेंदु पेजलपट्ट दु।बते बालचन्द्र पंडितदेव ५ का उल्लेख किया है जिन्हें मैंबेही प्रमत्ताप्रमत्तर्ग संज्वलनकषायंगज उदितदेशवातिस्र्धकानंतक- बालेन्दु पंडित समझता हूं जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके भागानुभागदाडने उदयमनेयददेशीयमाणंगलप्पविवक्षितोर- ईस्वी सन् १३१३ के एक शिलालेख में हमारे और यनिषेक गल सर्बघातिस्पर्धकानन्तबहुभागंगलुदयाभावलक्षण- यदि यह बात मानली जाय तो हम उस समयको लगभग यदोडमवरुपरितननिषेक गलप्पनुदयप्राप्तंगलगे सदवस्थाल- पचास वर्ष पीछे लेजाने में समर्थ हैं। इसके अतिरिक्त उनकी क्षणमप्प उपशममुटागुत्तिरलु समुपसमप्पुदरिंदं चारित्रमोहमं पदवियों-उपाधियों और छोटे २ वर्णमासे. जोकि उनमें दिये कुरितिल्लियु सकलसंयममुकायोपशमिकभावमेंदु पेललपहु- हुए हैं, मुझे मालूम हुआ है कि हमारे अभयचन्द्र और बालबुबुदु श्रीयभयसूरिसिद्धान्तचक्रवर्तिगलभिप्रायं । अहंगेमेयु चंद्र, सभी सम्भावनाओंको लेकर वेही हैं जिनकी कि प्रशंसा अपूर्वकरणादिगुणस्थानंगलोल चारित्रमोहनीयमने कुरितु बेलूर शिलालेखों में कीगई है और जो हमें बतलाते हैं कि तत्तद्गुणस्थानंगलोलु भावंगलरेयस्पडुवुवु ॥
अभयचंद्रका स्वर्गवास ईस्वी सन् १२७६ में और बालचंद्रका नेमिचन्द्रकी संस्कृत जी. प्रदीपिका 36
ईस्वी सन् १२७४ में हुआ था। इस प्रकार हम परीक्षापूर्वक देशविरते प्रमत्तसंयते तु पुन: इतरस्मिन् अप्रमत्तसंयते अभयचंद्रकी मं. प्रबोधिकाका समय ईस्वी सन् की १३वीं: चक्षायोपशमिकसंयमलक्षणोभावो भवति । देशसंयतापेक्षया शताब्दीका तीसरा चरण स्थिर कर सकते है। प्रत्याख्यानावरणकषायाणां उदयागतदेशवातिस्पर्धकानन्तबहु- नेमिचंद्र ने उस वर्षका, जिसमें उन्होंने अपनी जी०प्रदीभागानुभागोदयन सहानुदयागतक्षीयमाणविवक्षितादयनिषे- पिकाको समाप्त किया, कोई उल्लेख नहीं किया। चूंकि कसर्वघातिस्पर्धकानन्तबहभागानामुदयाभावलक्षणक्षये तेषामु- उन्होंने केशववर्णीकी वृत्तिका गाद अनुकरण किया है. इस परितननिषकाणां अनुदयप्राप्ताना सदवस्थालक्षणोपशमे च लिये उनकी जी० प्रदीपिका ईस्वी सन् १३५६ के बादकी है सति समुद्भुतस्वात् चारित्रमोहं प्रतीत्य देशसयमः क्षायोपशिम- और साथ ही यह सम्बत् १८१८ या ईस्वी सन् १७६१ सेकभाव इत्युक्तम् । तथा प्रमत्ताप्रमत्तयोरपि राज्वलनकषायाणा- पहलेकी है, क्योंकि इस सालमें पं० टोडरमल्लजीने संस्कृत मुदयागतदेशवातिस्पर्धकानन्तकभागानुभागेन सह अनुदयोग- जी० प्रदीपिका3८ का अपना हिन्दीअनुवाद पूर्ण किया है। तक्षीयमाणविवक्षितोदयनिषेकसर्वधातिस्पर्धकानन्तबहुभागानां यह काल अभीतक एक लम्बा चौदा फैला हुमा काल है, उदयाभावलक्षणक्षये तेषा उपरितननिषेकाणां अनुदयप्राप्तानां और हमें देखना चाहिये कि ये दोनों सीमाएँ कहापर अधिक सदवस्थालक्षोपशमे च सति समुत्पन्नत्वात्चारित्रमोहं प्रतीत्या- निकट लाई जासकती हैं। नेमिचंद्रने ज्ञानभूषण, मुनिचंद्र. त्रापि सकल पंयमोऽपि सायोपशमिकोभाव इति भणितं इति प्रभाचंद्र, विशालकीर्ति आदि अपने समकालीन बहुतसे श्रीमदभयचन्द्रसूरिसिद्धान्तचक्रवभिप्रायः । तथा उपर्यपि व्यक्तियों के नामोंका उल्लेख किया है. लेकिन जैनाचार्यों और अपूर्वकरणादिगुणस्थानेषु चारित्रमोहनीयं प्रतीत्य तत्तदगुण- साधुओंके सम्बन्धमें ये नाम इतनी अधिकतासे दुहराये गये स्थानेषु भावा ज्ञातम्याः॥
हैं कि कोई भी ऐसी समानता जोकि केवल नामकी समानता इन सारसंग्रहोंसे यह स्पष्ट है कि नेमिचन्द्रने केशववर्णी पर ही आश्रित हो, कुछ भी मूल्य नहीं रखती; और यदि का कितना गाढ़ अनुसरण किया है, केशववर्णीकी कमडशैली अन्य कोई प्रमाण न हो तो ऐसी समानताओंको लेकर प्रवृत्ति संस्कृत शब्दोंमे कैसी भरपर है और वह कितनी सरलतासे भी नहीं करनी चाहिये। हो, मल्लिभूपालविषयक उसका सातमें अनुवादित कीजासकती है. और किस प्रकार केशव- उल्लेख विशेष महत्वपूर्ण है। मल्लिभूपालको कर्णाटकका वर्णी तथा नेमिचन्द्र दोनों ही ने अभयवन्द्रका उल्लेख किया है ३५ जीवकाण्ड, कलकत्तासंस्करण, पृ० १५० । रही इन टीकाओंके समयकी बात, म. प्रबोधिका ईस्वी
3६ एपिनोफिया कर्णाटिका II. No 65. सन् १३५६ से, जबकि केशववर्णाने अपनीवृत्ति समाप्त की थी. पहलेकी रचना है। अभयचन्द्र ने अपनी मं. प्रबोधिकामें एक
39 एपियोफिया कर्णाटिका, जिल्द ५ मंख्या १३१-३३ । 3४ कलकत्तासंस्करण, पृ० ३६।
30 जैनहितैषी. भा० १३ पृ० २२ ।