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अनेकांत
[वर्ष ४
भी उपलभ्य हैं। मैंने कोल्हापुरके लक्ष्मीपेनमडकी जीवकांड हैं:-'यथा कर्णाटवृत्ति व्यरचि' अथवा 'कर्णाटवृत्तितः'। की इस वृत्ति की एक लिखित प्रतिकी परीक्षा की है । इस यहाँपर मैं एक ध्यान खींचने वाला सार (जीवकाण्ड कडवृत्तिका नाम भी 'जीवतत्व प्रदीपिका' है, और । यह गाथा नं. १३) तीनों टीकामोंपरसे उद्धत करता है, जिससे संस्कृत जी. प्रदीपिकाले कुछ बड़ी है।यह बहतसे काड पों- उन टीकाओंका पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट होजायगा। से प्रारम्भ होती है, जिन्हें स्वयं लेखकने रचा है। जिस तरह मन्दप्रबोधिका" 'धवला' की रचना कुछ प्राकृतमें और कुछ संस्कृतमें हुई है देशविरते प्रमत्तविरते इतरस्मिक्षप्रमत्तविरते च सायोपउसी तरह यह वृत्ति कुछ काडमें और कुछ संस्कृतमें है (जो शमिकचारित्रलक्षण एव भावोवर्तते । देशविरते प्रयाख्यानावकि मणिप्रवाल शैलीके तौरपर समझी जाती है), मासकर रणकषायाणां सर्वघातिस्पद्धकोदयाभावलक्षणे आये, तेषामेव अपने प्रारम्भ में। इसमें स्थल-स्थलपर बहुतसे प्राकृत उद्धरण हीनानुभागरूपतया परिणतानां सदवस्थालक्षणे उपशमे च पाये जाते हैं। गा०सारकी गाथाएँ संस्कृतछाया सहित दीगई। देशवातिस्पद्धकोदयसहिते उत्पन्न देशसंयमरूपचारित्रं चायोहैं और शब्दशास्त्र सम्बन्धी अनेक चर्चाएँ संस्कृतमें हैं। पशमिकम् । प्रमशविरते तीव्रानुभागसंज्वलनकषायाणां प्रागु
केशववर्णी अभयसूरि सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य थे, और क्तलक्षणक्षयोपशमसमुत्पन्नसंयमरूपं प्रमादमलिनं सकलचाउन्होंने अपनी वृत्ति धर्मभूषण भट्टारकके आदेशानुसार शक रित्रं शायोपशमिकम् । अत्र संज्वलनानुभागानां प्रमादजनकसम्बत् १९८१ या ईस्वी सन् १३५१२९ में लिखी है। त्वमेव तीव्र स्वम् । अप्रमत्तविरते मन्दानुभागसंज्वलनकषागणां
मैंने केशववर्णीकी वृत्तिकी तुलना अभयचंद्र की मं०प्रयो- प्रागक्तक्षयोपशमोत्पन्नसंयमरूपं निर्मलं सकलचारित्रं वायोपशधिकासेकी है और उसपरसे मुझे यह अनुभव हुया है कि मिकम् । तु शब्दः असंयतादिन्यवच्छेदार्थः । स खलु देशविरस्वयं केशववर्णीने अभयचंद्र की रचनाका पूरा २ लाभ लिया तादिषु प्रतिक्षायोपशमिकोभावः चारित्रमोहं प्रतीत्य भणित: है। मैं केशववर्णीकी कन्नडवृत्तिमें अभयचंद्रविषयक कमसे तथा उपरि उपशमकादिषु चारित्रमोहं प्रतीत्य भणि प्यते । कम एक खाम उल्लेख बतला देनेके लिये समर्थ है । केशववर्णितकमड जी. प्रदीपिका३२
नेमिचंद्रकृत संस्कृत जी. प्रदीपिकाकी केशववर्णिकृत देशाविरतनोशं33 प्रमत्तसंयतनोलं इतरनप्प अप्रमत्तसंयकाड जी. प्रदीपिकाके साथ तुलना करनेपर मुझे मालूम तनो बायोपशमिकसंयममक्कुं । देशसंयतापेक्षयिंदं प्रत्याहुआ है कि पहली बिल्कुल दूसरीके प्राधारपर बनी है । नेमि- ख्यानकषायंगलुदयिसल्पदेशघातिस्पद्धकानन्तै कभागानुभा-- चंद्रने कुछ अंशोंको जहां तहां छोड़ दिया है, संस्कृत वंश गोदयदोडने उदयमनेयददे दीयमाणंगलप्पविवक्षितनिषेकंगल अपने उसीरूपमें कायम रखे गये हैं और जो कुछ काडमें है सर्वघातिस्पद्धगलनंत बहुभागंगलुदयाभावल (क्षण) क्षयउसको अक्षरशः संस्कृतमें बदल दिया है। उन गाथाओंके दोलमवरुपरितननिषेक गलप्पनुदय प्राप्तंगलगे सदवस्थालक्षसम्बन्धमें जिनपर किम० प्रबोधिका उपलब्ध नहीं है, नेमि- णमप्पपशममुटागुत्तिरलु समुन्नतमप्पुदरिंदं चारित्रमोहमं चंद्रकी जी० प्रदीपिकामें ऐसी कोई भी बात नहीं है, जोकि 31 कलकत्तासंस्करण. ० ३६। केशवव की कमर जी. प्रदीपिकामें उपलब्ध न होती हो; ३२ कोल्हापरकी प्रति, पृ० १६ । और सम्भवतः यही कारण हैं जिससकि नेमिचंद्र स्पष्ट कहते 33 यह टीका उस भाषामें लिखी गई है जो कि पुरानी कन्नड यह कागज़ पर लिखी हुई एक प्रति है। इसका परिमाण कहलाती है; जो कि कन्नड नहीं जानते, वे भी संस्कृत १२५४८५ इंच है और इसमें ३८७ पत्र हैं। प्रति जी० प्रदीपिकाके साथ श्रासानीसे इमकी तुलना कर लिपिका ममय शक १२०६ दिया हुआ है जोकि स्पष्ट हो सकते हैं, और इसी उद्देश्यके लिये मैंने इसको देवनागरी लिपिकारका प्रमाद है, जबकि हमें सारण है कि केशव- अक्षरोंमें लिख दिया है । इसका बहुभाग कन्नड प्रत्ययाके वर्णाने अपनी बृत्ति शक १२८१ में लिखी थी।
माथ संस्कृत में लिखा गया है । यह होना ही चाहिये, २९ 'कर्णाटककविरचिते' (बेंगलौर १६२४) पृ० ४१५-१६ । क्योंकि लेखक विविध पारिभाषिक शब्दोंको, जो कि ३० देखो अागे दिया हुआ निष्कर्ष ।
पूर्णतया संस्कृतके हैं, प्रयोग करनेके लिये बाध्य हुश्रा है।