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________________ ८४ अनेकान्त [वर्ष ४ या तो जन्म भूमिका स्याग, या साधुता म्वीकार ?' बाधक हुश्रा करते हैं । पर, मेरा सौभाग्य है कि मुझे देर तक ऊहापोह होता रहा । किमीनं कुछ कहा, मेरे घर वाले खुशीस इजाजत देते हैं ।'-ब्रह्मगुलाल किसीने कुछ ।' नं प्रमन्नतासं उत्तर दिया। मथुरामल बोले-'स्वांग रखनमें हर्ज क्या है? एकान्तमें स्त्रीसं पूछा तो वह बाली-'और सब मेरा तो खयाल है कि इसमें अच्छाई ही है, बुगई क्या कहते हैं ?' नहीं । महाराज शान्त हैं, तथा और शान्त ही होना 'सबने कह दिया है।' चाहते हैं। जो अपने हए अपराधके लिए शुभ है।' ''तो, मैं क्या दूमरी बात कह सकती हूं 'ननकी यह प्राज्ञा तो सर्वथा उचित है। ग्व- बन जाओ।' हृदयका सन्तोष मिलना ही चाहिए । फिर जन्मभूमि त्यागका सवाल उठता ही कहां है ? उनकी इच्छानुकूल स्वांग रखने में अड़चन क्या है ? प्रत्यक्ष तो गतभर !मालूम नहीं देनी कुछ ।' ब्रह्मगुलाल मंसारकी अथिरता और जीवकी ब्रह्मगुलालन गंभीर होकर कहा-'मेरे लिए तो अशरणता पर गंभीरता-पूर्वक सोचता-विचारता रहा। कोई दिक्कत नहीं है। मैं पूछता सिर्फ इसलिए हूँ हृदयमें वैराग्यकी ज्योति उद्दीप्त हो उठी थी । मोहपीछे फिर आप लोग मुझे घरमें रहने के लिए मजबूर ममताम दूर-बहुत दूर-जा चुका था-वह । न करें। क्योंकि..।' सुबह हुआ ! ब्रह्मगुलालको लगा-जैसे आजका बात काट कर पूछा गया-क्या ?' प्रभात कहीं अधिक ज्योतिमान है। अंधकारको हरने 'इसलिए कि मैं साधुताको स्वांगका रूप देकर की अधिकसं अधिक क्षमता रखता है। अपूर्व-चमकसं दूषित न कर सकंगा। जिसके लिए इन्द्र-अहमिन्द्र निकला है भाजका सूरज । ठ क उसके मनकी तरह जैसी महान आत्माएँ तरसती हैं।' उल्लासमय। सबने अलग हट-हट कर, सलाह-मशविरा कर, मन्दिर पहुँचा । भगवानके पवित्र श्रीपदोंमें, तय किया-'लड़कपन है, समझता क्या है अभी। सविनय प्रणाम कर, सिर नवाया; और स्तुतिकी । फिलहाल गज-प्राज्ञाका पालन होने दो, गजा प्रसन्म देरतक उनकी शान्ति, और कल्याणकारी छविको हो जाएँ, बस । फिर पीछे समझा-बुझा लेंगे । साधुता निरग्यता रहा-अतृप्तकी तरह । और न जाने क्यामें सुख तो है नहीं, जो वहां रम सकेगा । तलवारकी क्या प्रार्थनाएँ कर बाहर भाया-प्रांगनमें । धार पर चला जाए, जैसी होती है। और ऐसे सैलानी नगरनिवासियोंके ठठ लग रहे थे । आते ही जरा क्या साधु बन भी सकते हैं ___ लम्बे स्वरस कहना शुरू कियाऔर कहा गया-'हमें सब-कुछ मंजूर है। तुम 'समाजके कर्णधार ! मैं भगवान के सन्मुख, प्राप राजाज्ञाका पालन करो। लोगोंको साक्षी देकर भवबन्धन-विमुक्त करने वाली 'ठीक ! अक्सर ऐसे शुभ-कार्यों में घर वाले ही भगवतीदीक्षा ग्रहण करता हूं । दुःख है, कि दुर्भाग्य
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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