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________________ महाकवि पुष्पदन्त किरण ६-७ ] और भूमण करते हुए और बड़ा लम्बा दुर्गम गस्ना नय करके मेलपाटी (उत्तर अट जिलेका एक स्थान ) पहुँचे थे । उनका स्वभाव स्वाभिमानी और कुछ उम्र तो था ही, अब कोई आश्चर्य नहीं जो राजा की जरा-सी भी टेढ़ी मोहको वे न सह सके हां और इसीलिए नगर मे चलनेका श्रमह करने पर‍ उन दा पुरुषोंके सामने राजाओ पर बरस पड़े हो । अपने उम्र स्वभाव के कारण ही वे इतने चिढ़ गये और उन्हें इतनी वितृष्णा हो गई कि सर्वत्र दुर्जन ही दुर्जन दिखाई देने लगे, और माग संसार निष्फल, नीरम. शुल्क प्रतीत होने लगा X । जान पड़ता है महामात्य भरत मनुष्यस्वभाव के बड़े पारस्त्री थे, उन्होंने कविवरकी प्रकृतिका समझ लिया और अपने सद्व्यवहार, समादर और विनयशीलता सन्तुष्ट करके उनसे वह महान कार्य करा लिया जो हमरा शायद ही करा सकता । राजा के द्वारा अवहेलित और उपेक्षित होनेके कारगा दूसरे लोगोंने भी शायद उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया होगा, इसलिए राजाओं के साथ साथ औगेम भी वे प्रसन्न नहीं दिखलाई देते; परन्तु भरत और नन्न की लगातार प्रशंसा करते हुए भी व नहीं थकते। र अन्तमें उन्होंने अपना परिचय इम रूपमें दिया है - "मिद्धिविलासिनीके मनोहर दृत, मुग्धा देवीके शरीर संभूत, निर्धनों और नियोको एक दृष्टि देखनेवाले, सारे जीवोंके अ कारण मित्र, शब्दमलिलम बढ़ा हुआ है काव्यत्रांत जिनका, केशव के पुत्र, काश्यपगोत्री, सरस्वती * देवो पिछले उद्धरण । X जो जो दम मो मो दुगु फिलु गरि जे मुकउव बिलामी, सूने पड़े हुए घगे और देवकुलिकाश्रम रहनेवाल, कलिके प्रबल पापोंके पटलोंम रहित, बेघरबार और पुत्रकलत्रहीन, नदियां बापिकाओं और संगम स्नान करनेवाले, पुराने वस्त्र और बन्कल पहिननेवाले, धूलधूमग्नि अंग, दुर्जनीकं मंग से दूर रहने वाले जमीन पर सोनेवाले और अपन ही हाथांका श्रदनेशाले पंडित-पंडित-मरगाकी प्रतीक्षा करनेवाले, मान्यम्बेट नगग्मे रहनेवाले. मनम अरहंतदेवका ध्यान करनेवाले भग्तमंत्री द्वारा सम्मानित, अपने काव्यप्रबंधम लोगोको पुलकित करने बाले, पापरूप कीचड़ जिन्होंने धो डाला है, ऐस अभिमान मंत्र पुष्पदन्मने, यह काव्य जिन पदकमलो में हाथ जोड़े हुए भक्तिपूर्वक क्राधनमंत्री प्रसाद सुदी दसवीं को बनाया । * मिद्धिविला मिगि महदुएं, मुद्राएं | ढिलोसमचितं, सन्जीव कि कारण मिलें ॥ २१ मद्दमलिपरिवयि सोनं, केमपु कामगर्ने । विमलसरासर जयिविलामें. सुभगादेवलगवाये ॥ २२ कालमलपवलपडलरचनें, ग्रेगा निकलते । इवावी तलाय मग्गागो, जर-चीवर वक्कल - परिक्षणं ॥ २३ श्री धूली धूमरियं गं, दूरुरुज्झि दुजसंगे । महि गायले गु पिंडरंडियमर " पुरे मरं श्रनदेव ॥ २४ ४११ वसंते, झायंते ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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