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________________ ४१० ( काव्यविशाच या काव्यगक्षम ) ये उनकी पदवियाँ थीं। यह पिछी पदवी बड़ी अद्भुत सी है; परंतु इसका उन्होंने स्वयं ही प्रयोग किया है। शायद उनकी महती कवित्वशक्तिकं कारण ही यह पद उन्हें दिया गया हो। 'अभिमानमेरु' पद उनके स्वभावका भी व्यक्त करता है । वे बड़े ही स्वाभिमानी थे । महापुराण की उत्थानिकामे मालूम होता है कि जब महि परिभमंतु मेलाडिण्यरु । श्रवहेरिय खलयणु गुणमहंतु, यहि पराइउ पुष्यंतु । गदावर किर त्रीममइ जाम, नहि विण पुग्मि संपत नाम । वेणु नहि पवन एव भी खंड गलियाचा वलेव । परिभरिभमररवगुमगुमंत, कि कर विसाई गिज्जाव णांत । करिसचहिरियदिच्चक्कवालि , पसर्ग किं पुरवरि विसालि । तं मुवि भगद्द हिमागमेरु, वर वज्जर गांरकंदरि कमेरु । उ दुजनमउहा कियाई, दीमंतु कलुमभाव कियाई । गरवरु धवलच्छि होहु म कुच्छिदे मरउ मणिहाणाम वर स्वकृच्छ्रयमहुवा है भिउदियाया म गिहालउ सूरुग्णमे चमरालि उड्डाविय सेयधोरण तराइ | श्रविवेयर दयुत्तालयाइ, मोधर मारासीलियाह । मनगरजभरभारिया, रिपुत्तरमारमयारियाइ । त्रिसमहज मइ जडरत्तियाइ, कि लच्छिवि उमविरनियाइ । गुग्गाड, अनेकान्त वर्ष ४ वे ग्वलजनों द्वारा अवहेलित और दुर्दिनोंस पराजित होकर घूमते घामते मलपाटीके बाहर एक बगीचे में विश्राम कर रहे थे, तब अम्मय और इन्द्र नामक दो पुरुषोंने आकर नसे कहा, श्राप इस निर्जन वनम क्यों पड़े हुए हैं, पासके नगरमं क्यों नहीं चलते ? इसके उत्नरमे उन्होंने कहा- “गिरिकन्दराश्रमं घाम खाकर रह जाना अच्छा परंतु दुर्जनांकी टेढ़ी भौंह देखना अच्छा नहीं । माताकी कुंग्बसे जन्मते ही मर जाना अच्छा परन्तु किसी राजाके भ्रू कुंचित नेत्र देखना और उसके कुवचन सुनना अच्छा नहीं । क्योंकि राजलक्ष्मी दुग्ते हुए चँवरोंकी हवासे सारं गुणोंकी उड़ा देती है, अभिषेक के जलसे सुजनताको धो डालती है, विवेकहीन बना देती है, दर्पमे फूली रहती है, मोहमें अंधी रहती है, माग्ाशीला होती है, सप्तांग राज्य के बोसे लदी रहती है, पिता-पुत्र दोनोंमें रमण करती है, विषकी सहोदरा और जड़-रक्त है। लांग इस समय ऐसे नीरस, और निर्विशेष ( गुणावगुणविचाररहित ) हो गये हैं कि बृहस्पतिकं समान गुणियों का भी द्वेष करते हैं। इस लिए मैंने इस वन की शग्गा ली है और यहीं पर अभिमान के साथ मर जाना ठीक समझा है ।" पाठक देवेंगे कि इन पंक्तियोंमें कितना स्वाभिमान और गजाश्रों तथा दूसरे हृदयहीन लोगोंके प्रति कितने ज्वालामय उद्गार भरे हैं। ऐसा मालूम होता है कि किसी राजाके द्वारा अवहेलित या उपेक्षित होकर वे घर चल दिये थे मंजर नीरसुव्वसेसु, गुणवंत जहिं सुरगुरुवि वेसु । श्रम्हद लइ कारणरणु जि मरणु, श्रहिमाणें हुं वरि होउ मरणु ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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