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________________ १०२ अनेकान्त [वर्ष संसारके मुंहसे धर्म तकका नाम निकलना बन्द ही इस बहुमूल्य प्रामिसे इस आश्रमके कोशको भर दो । जायगा, उस समय भी तेरे अपवादरूप चरित्रका स्थल परन्तु प्रभो, यदि मैं पराजित होजाऊँ लोग हर्षसे गायन करेंगे। भद्र ! इसमें अधिक प्रकाश तो आप मेरी सहायता करनेको तत्पर रहिए । में मैं तुम्हें नहीं पहुंचा सकता; अधिक प्रकाश तो तुम्हें कोशाह के गृहमें प्राप्त होगा । वहाँस प्रकाश। ___मंभूनि०–तान ! मैं सर्वदा ही तुम्हारे साथ हूं। पराजयका भय त्याग दो, भय ही आधी पराजय है। लाकर, गुरुके आश्रमको उज्ज्वल करना। वन और गुफाओंमें शैतान पर विजय प्राप्त करनेसे जो फल जहाँ तक याचकता है, वहाँ तक ही भय है। मिलना है, उसकी अपेक्षा शैतानके घरमें जाकर ही स्थूल-तो नाथ ! अब मैं आज्ञा मांगता हूँ उस पर विजय प्राप्त करनेसे अधिक बहुमूल्य सम्पत्ति और एक बार फिर प्रार्थना करता हूँ कि यदि गिरूँ हाथ लगती है। वहाँ शैतान अपने गुप्त भंडार विजेता तो उठानकी कृपा करेंगे के। के समक्ष खोल देता है। उसमें विजेता चाहे जितना * स्वर्गीय श्वी० वाडीलाल मोतीलाल जी शाह द्वारा सम्पादित ले सकता है और संसारको भी दे सकता है। तात ! गुजराती "जैन हितेच्छु” से अनुवादित । संयमीका दिन और रात (लेखक-श्री विद्यार्थी' ) " या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि, सा निशा पश्यतोमुनेः ॥" सब प्राणियोंकी रात है उसमें मंयमी शुद्ध चैतम्यस्वरूप तथा शरीरमे बिल्कुल पृथक है, जो शरीरके M y मनुष्य जागता है-वह उसका दिन है- मंसर्गसे-पुद्गल परमाणुश्रोके समावेशसे-अपने असली रूपसे ( 2) और जिसमें प्राणी जागते हैं-जो संसारी हटकर विकृतरूपमें प्रकट होता है। वस्तुत: श्रात्मामें सदैव जा प्राणियोंका दिन है वह उस द्रष्टा मुनि उसके स्वाभाविक गुण-अनन्तदर्शन, अनन्तशान, अनन्त x nx की रात है-इस वाक्यमें अनेकान्तियो वीर्य श्रादि-विद्यमान रहते हैं, जो कार्मिक वर्गणाओके को तो कोई आश्चर्यकी बातही नहीं; श्राच्छादनसे पूर्णरूपमें दृष्टिगोचर नहीं होते । परन्तु वे कभी क्योंकि उनके लिये तो यह केवल दृष्टिकोणका भेद है, जिस श्रात्मासे पृथक् नहीं होते और न हो ही सकते हैं । जिस से दिनको रात्रि तथा रात्रिको दिन भी समझा जा सकता है। प्रकार सूर्य्य सदैव तेजोमय है किन्तु जलद-पटलके कारण किन्तु यह वाक्य नो एकान्तवादियोंके एक प्रतिष्ठित एवं विकृत रूपमें दिखाई देता है। जैसे जैसे धनावरण हटता प्रमाणित ग्रन्थका उद्धरण है जिसमें रात्रिका दिवस तथा जाता है वैसे ही वैसे उसकी प्राकृतिक प्रभा भी प्रादुर्भूत दिवसकी रात्रि की गई है। अस्तु, इसका समाधान भी वही होती जाती है, उसी प्रकार जैसे ही जैसे कार्मिक वर्गणाश्री है केवल अपेक्षावाद ! का आवरण, जो आत्माको श्राच्छादित किये हुए है, इटता इसके लिखनेकी श्रावश्यकता नहीं कि श्रात्मा नितान्न जाता है वैसे ही चैमे श्रात्मा अपने शुद्ध स्वाभाविक स्वरूप
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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