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________________ किरण २] संयमीका दिन और रान १५३ में विकसित होता चला जाता है। इस दृष्टिसे सभी प्रात्माएँ पूर्णरूपेण विकसित होते हुए देखनेकी ओर है। बराबर है-कोई किसीसे बड़ी छोटी अथवा ऊँची नीची इस कारण वे या तो किसी निर्जन वनमें, जहा कि नहीं है। किन्तु हम देखते हैं कि एक उद्भट विद्वान् है तो दिनरातमें कोई अन्तर नहीं, चले जाते है और या अपना दूसरा निरक्षर भट्टाचार्य, एक सर्वमान्य है तो दूसरा सर्वतो- कार्य अधिक उपयोग लगाकर उस समय करते हैं जबकि बहिष्कृत, एक अत्यन्त सुखी है तो दूसरा नितान्त दुःखी संसार अपने कोलाहलसे स्तब्ध हो जाता है और संमारी श्रादि, जिसमे यह धारणा होती है कि मब अात्माएँ समान प्राणी दिनभर अथक परिश्रम करके मो जाते हैं। इस प्रकार नहीं हैं वरन् भिन्न भिन्न है अथवा ऊँच-नीचे भिन्न भिन्न उन संयमी पुरुषोका कार्य उस समय प्रारम्भ होता है जब स्थलो पर स्थित है। यदि वास्तवमं देखा जाय तो यह कि सब लोग निद्रा देवीकी गोद में चले जाते हैं और उस विषमता केवल उसी घनरूपी कर्मावरणके स्थूल नथा सूक्ष्म समय तक सुचारु रूपसे मम्पन्न होता है जब तक कि समारी होने पर निर्भर है, जिस ममय यह श्रावरण बिल्कुल इट जीव पनः अपने कार्य में प्रविष्ट नहीं होते। जावेगा उम ममय मूर्यरूपी आत्मा अपने स्वाभाविक शुद्ध- यह तो हा मंयमी परुषोंका दिन--जबकि वे अपना रूपमें देदीप्यमान होगा और इम बाह्य विषमताका कही कार्य करते हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि जो हम मब पता तक नहीं लगेगा। का दिन है वह उनके लिए रात कैसे ? इसका उत्तर यह है लेकिन हमारी श्रात्माश्री पर श्रावरण इतना अधिक कि जिम प्रकार रात्रिमं हम पर्यङ्क पर लेटे लेटे, विना हाथ स्थूल तथा कठोर है कि उसने उनकी तनिक भी श्राभाका पैर हिलाए, नाना प्रकारके कार्य कर लेते हैं, कोमों दूर हो अवलोकन हमको नहीं होने दिया है। इसका परिणाम यह श्राते हैं, विना पेट भरे अनेक प्रकारके भोजन पा लेते हैं, हुआ कि हम इम शरीरको ही सब कुछ मानने लगे और विना दूसरेसे अपनी बात कहे हुए अथवा उसकी सुने हुए दिनरात इसकी ही परिचर्या एवं चाकरीमें संलम रहने लगे वार्तालाप कर लेते हैं, विना किमीको दिये हुए अथवा हैं । प्रात:कालसे लेकर मन्ध्या पर्यन्त हम इसी उधेड़-बुनमें किसे लिये हुए बहुत-मी वस्तुएँ दे ले लेते हैं, इत्यादि लगे रहते हैं कि इम शरीरका पालन केमे करें। इसके परे अनेक कार्य कर लेते हैं और श्राख खुलनेपर वह कुछ नहीं श्रावरणसे श्राच्छादित जो असली वस्तु है उमका कुछ भी रहता--बहुधा बहुत विचार करने पर भी उम सबका कोई ध्यान नहीं-उसके निमित्त एक क्षण भी नहीं ! वेमे अनंत स्मरण नहीं होता, ठीक उसी प्रकार उक्त परिणति वाले सुखकी प्रामिके लिए वाछनीय तो यह है कि हम अहोरात्र मनि लोग दिनमें जो खाना पीना, उठना बैठना, चलना उमी असली वस्तुके कार्य में मलम रहें, इस शरीर के लिए फिरना, बातचीत करना, देना लेना, श्रादि कार्य करते हैं, एक क्षण भी न दें। किन्तु यह अत्यन्त दुष्कर है, इमलिए वह सब स्वप्नवत होता है-उससे उन्हें कोई अनुराग नहीं वे धन्यात्मा, जिनको आत्मानुभवके रमास्वादन करनेका होता । और जिम तरह अौरव खुलने पर हम स्वप्नकी बातें सौभाग्य प्राम हो चुका है-चाहे उनको 'मंयमी कहिए भूल जाते हैं, उमी तरह रात्रिमें-जो उनका दिन हैया 'मुनि'-यथाशक्ति अपना अमूल्य ममय असली कार्यमें ध्यानावस्थित होने पर, हृदयकी श्राग्व ग्वुलने पर, वह उन ही लगाते हैं-शरीरसम्बन्धी उपयुक्त कामांमें उमका मब कार्योको जो उन्हेंोंने हमारे दिन अर्थात् अपनी रानमें दुरुपयोग नहीं करते । फिर भी हम लोग जो बाह्य इन्द्रियों किये हैं भूल जाते हैं और उनसे कोई लगाव नहीं रखते। की तृनिके लिए सुबह शाम तक चहल पहल करते रहते इस प्रकार उक्त वाक्य कि, जो हमारी रान है उसमें हैं उससे उन महात्माओंको बाधा पहुँचती है जिनकी इच्छा संयमी जागता है और जिसमें हम जागते हैं वह उस द्रष्टा तथा प्रवृत्ति उक्त आवरणको छेदन करके अपनी श्रात्माको मनिकी रान है, ठीक ही है।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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