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________________ रानी [ लेखक-'भगवत' जैन] लेकिन यह थी कौन, कोमलागी, दयाकी, ममताकी यह चाँद-सा सुन्दर बालक जब उसकी आँखोंके सामने देखी?.... पाता, तो वह अान्द-विभोर हो जाती! तन-बदनकी सुध हों उसका नाम था-रानी! वह गौरवर्ण, सुन्दरभूल जाती-कुछ देरके लिए-सृष्टिकी समस्त रचनाओंकी शरीर, नव-यौवना विल्लोचिन थी! जी, हाँ ! वही विल्लोमधुरताको! चिने-जो अपनी बर्बरता, पशुता, नृशंसनाके सबब-सब "उसका धर्म, उसका कर्म, उसका सुख, उसकी ' के लिए अातंक होती हैं ! जिस शहरमें वे पहुँच जाती हैं, मम्पत्ति-सब कुछ बस, वही था, तीन सालका विकारहीन बालक! वहाँके निवामी उनसे अॉख मिलाने तककी अपनेमें शक्ति वह उसकी मृदुल-मुस्कानमें स्वर्ग-सुखका अनुभव करती नहीं महसूस करते । उनसे लेन-देन या व्यवहारकी बात तो उसके करुण-कन्दनमें निष्ठुर-विधाताकी कुटिलताका दर्शन दूर ! शायद बहुत दूर !! करती! जब वह अपनी अनक्षरी-वाणीद्वारा अपने भावको दरअमल वे खौफनाक, लड़ाक, दया-हीन और निन्द्यव्यक्त करनेका उपक्रम करता, तो वह हँसते-हँसते दोहरी प्रवृत्ति होती हैं ! जिसने उनसे कुछ खरीदना चाहा, समझ पड़ जाती! जैसे सारे शरीरसे हँस रही हो! लीजिए कि उसकी शामत आगई ! ड्योड़े-दने दामोमें उसे और बच्चा माँ को हँसते देखता, तो और भी बोलने वह चीज लेनी ही पड़ेगी, जिसके बारेमें जुबानसे वह कुछ का साहस करता! तब वह स्वर्गमें डूब जाती, संसारकी भी कह चुका है ! भले ही लड़ाई हो जाय, झगड़ा हो जाय, विषमता उससे दूर रहती! भीड़ जुड़ जाय ! पुरुषको दबानेकी एक तरकीब और वह उसे चूमती, प्यार करती और गोदमें दबोचलेती ! इस्तेमाल करती हैं-वे ! कि-'मुझसे मखौल करता है !' बच्चेको थोड़ी तकलीफ़ करूर होती है, यह बात वह भूलती सच, वे ऐसी ही होती हैं ! उनमें कोमलता नामकी नहीं ! लेकिन उसका मन जो अपने आप में नहीं रहता! कोई चीन लोग नहीं देखते ! लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही मन तो मचलकर कहता है-काश, वह उसे मनमें ही है? क्या यही वास्तविक है, कि उनके हृदय नहीं होता? बन्द कर सके! पर इतना बड़ा समाये कैसे? लाचारी तो और होता भी है तो उसके अन्दर दया नहीं होती? क्या यही है! यह सम्भव है ? विश्वास किया जा सकता है ? क्या मजाल जो कभी एक उँगलीसे, मारनेके नाम अगर हाँ ! तो फिर दयाको सार्व-धर्म क्यों कहा जाता सेकुमा हो? यह बात नहीं कि सभी बातें उसकी उसे पसन्द आती, नहीं; कुछ बुरी भी लगतीं, हल्का-पूरा गुस्सा है ? विश्व-धर्म कहकर क्यो पुकारा जाता है ? भी अाता कभी-कभी! पर, वह उसे मारती हर्गिक न! आप उत्तर देंगे? दुलारा, प्यारा जो था, जी से भी ज्यादा! xxx
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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