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________________ २६२ अनेकान्त का ढेर मात्र है।" आगे फिर कहते हैं कि “विधिविधानानुसार चलनेवाले एक व्यक्तिका नाम भी तीर्थ हो सकता है । अतएव तीर्थक्षाके नाममे अशुद्ध धर्म-प्रथाका नाम ही तीर्थत्व है ॥ यांग रूप धर्मानुष्ठान चार प्रकारका है। प्रीति भक्ति, वचन और अमंग । इनमें से चतुर्थ ही श्रनालम्बन योग है। योगका अपर नाम 'ध्यान' भी है । यह आलम्बन योगरूप ध्यान दो प्रकारका होता हैरूपी और रूपी । मुक्त आत्माका ध्यान करना अनालम्बन रूप ध्यान है। क्योंकि इसमें केवल मुक्त जीवके गुणों के प्रति चिंतन, मनन या स्थिरत्व होता है । अतः यह अतीन्द्रिय विषयक होनेसे अनालम्वन रूपयोग है । [ वर्ष ४ हरिभद्रसूरिने जो बीम विंशिकाएँ लिखी हैं, उन सब पर उपाध्याय यशोविजयजीने भावपूर्ण व्याख्याएँ लिखी है। किन्तु उन सब व्याख्याओं में से केवल इस योगविंशिकाकी ही व्याख्या मिल सकी है । यह व्याख्या इतनी भावपूर्ण है कि अपने आप में यह एक ग्रंथ रूप ही है। बीस विंशिकाओं में यांगविंशिका की संख्या १७वीं है और कहनेकी श्राव श्यकता नहीं कि बीस प्राकृत गाथाओं द्वारा संगुफिन यह योगका छोटा सा किन्तु महत्वपूर्ण ग्रंथ है। उपाध्याय यशोविजयजाने घांडशक नामक यांग-ग्रंथ पर भी टीका लिखी है । आचार्यश्रीनं अपने पांडशक योगग्रंथ में अनालम्बन रूप ध्यानको रूपक अलंकार द्वारा इस प्रकार समझाया है कि- क्षपक आत्मा रूप धनुर्धर, क्षपक श्रेणी रूप धनुष के ऊपर अनालम्बन रूप बारणका परमात्मा रूप लक्ष्य के सम्मुख इस प्रकार चढ़ाता है कि बाण- छूटने रूप अनालम्बन ध्यानके समाप्त होतं ही लक्ष्य वेधरूप परमात्मा तस्त्वका प्रकाश हो जाता है । यही केवलज्ञान है, जो अनालम्बन रूप ध्यान श्रेष्ठ फल । इस निरालम्बन रूप ध्यान से मोह का आत्यंतिक क्षय होकर क्षपक श्रेणीके बल पर आत्मा तेरहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है और अंत में चौहदवे गुणस्थानको प्राप्त होकर आत्मा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है । ऊपर लिखित पंक्तियोंमें यह प्रतीत होता है कि हरिभद्रसूरिन योग - साहित्य क्षेत्र में भी विषय व्याख्या और विषय वन शैलीकी नवोनता द्वारा नया-युग प्रस्थापित किया है । अपने योगविषयक ग्रंथोंमे आप न जैन योगधाग और पातञ्जल यांगधाराका अविराधात्मक सामञ्जस्य स्थापित किया है। योग-दृष्टि-ममुच्चयमे आठ दृष्टियोंकी नवीनता सम्पूर्ण यांग साहित्य में एक नवीन बात है । “मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, और परा" ये वे आठ नवीन दृष्टियाँ हैं, जोकि स्वरूपतः और दृष्टान्ततः मननीय एवं पठनीय हैं। इस प्रकार योगसाहित्य क्षेत्र में भी हरिभद्रसूरि एक विशेष धाराके प्रस्थापक एवं समर्थक हैं, यह निम्संकोच कहा जा मकता 1 (अपूर्ण)
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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