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________________ सार्वजनिक भावना और सार्वजनिक सेवा ( लावा. माईदयाल जैन. वी. ५०. मानस वी.टी.) अपनी नया अपने कुटुम्बकी भलाईके छोटे तथा का प्रत्यक्ष (Direct) तथा परोक्ष ( Indirect.) और मीमित क्षेत्रसे बाहर निकलकर अपनी गली, शहर, प्रांत. ममीप (Immediate) तथा दूरवर्ती (remote) समाज, देश तथा विश्वके जनोंकी निम्बार्थ भावसे भलाई सम्बन्ध दूसरोंसे भी है और अपनेसे भी है। चाहनाही सार्वजनिक भावना (Public Spirit) या म्बदेश उमतिकी भावनामे परहित और स्वहित दोनों (Public spiritedness) है । औरोंके दुःखोसे दुखी हैं। अपने शहर या समाजकी उन्ननिमें पराये और अपने होना, और तड़प उठना, पर-दुःखको अपना दुःख समझना, दोनोंके हित साधन होते हैं। अपने यहां शिक्षा प्रचार, स्त्रीदूसरोंके सुखकी भावना करना तथा उसमें ही अपना सुख उद्धार, ग्राम-सुधार, मन्दिर-सुधार, बालउमनिके कार्य या समझना कुछ ऐसी बातें हैं जिनमें उदारता, भातृभाव अन्य सामुदायिक हितकी बातें करना ये काम हैं जिनमें (Fellowterline) तथा एकपन वगैरा प्रकट होते हैं। परहितके साथ अपना हित भी सधता है। ऐसे काम भी बहुत इसमे ही मनुष्यकी जरुव । जाहिर होती है। मार्वजनिक से हो सकते हैं जिनम्मे सर्वथा परका हित होता है। भावना हर एक मनुष्यका वास्तविक गुण है। पर इसका सर्वहित, सर्वोदय और लोकहितका प्राधार मार्वजनिक उचित रूपसे विकास और इस प्रवृत्तिकी वाल्यकालसे पुष्टि भावना ही है। यह भावना जितने परिमाणमें निःस्वार्थ होगी (Development) और टनिंग न होनेसे यह भावना उतनी ही उत्तम होगी। इसका प्रोत्साहन होना चाहिए । स्वार्थभाव या खुद-गर्जीप दब जाती है । सार्वजनिक भावना और जितनी यह स्वार्थसे भरी होगी उतनी ही निकृष्ट और का प्रचार प्रोत्साहन तथा पोषण जितना भी अधिक हो निन्दनीय होगी। इसे कम करना और नवाना चाहिए। उतना ही अच्छा है। स्वार्थभावको न नो मार्वजनिक भावना बनानो और न ___ सार्वजनिक भावनासे परोपकार बनता है, जिससे अपने बनने ही दो। मुलम्मेको खरेके स्थान पर झूठेको सच्चेकी शहर, समाज, प्रांत, देश और दुनियाके दुःख दूर होते हैं, जगह मत चलायो । इसको चलने भी न देना चाहिए । तथा कठिनाइयां मिटकर लोकका हित सधता है, बड़े बड़े जनताको विवेकमे काम लेना चाहिए--उगाईमें न माना काम सफल होते है और संस्थाएँ चलती है । इस भावना चाहिए। रंगे गीदड़ों तथा टट्टीकी प्राइमें शिकार खेलने रूप प्रवृत्त होना मनुष्यका परम कर्तव्य है। समाज तथा वालोंसे सदा मावधान रहना चाहिये, उनकी उगाईसे बचना राष्ट्रहितका प्राधार यही है। इसमें अपना हित भी छुपा है- चाहिये । लेकिन हर एकको रंगा गीदड और टट्टीकी श्रादमें परमार्थ या परहितके साथ साथ स्वार्थ सिद्धि भी होती है। शिकार खेलने वाला भी न समझ लेना चाहिये । मब कहते स्वहितकी साधनाके खयालसे परहित या सार्वजनिक हितकी ऐसा ही हैं, पर बहुत कम लोग वास्तवमें खरे होते हैं। भावना करना संकीर्णता तो है, पर बुरी नहीं है। सर्वथा इमीमे जनताको विवेक और परीक्षामे काम लेना चाहिए। परहितकी भावना उसमे भी अच्छी है। सार्वजनिक भावना मुलम्मा भी असली बन कर ही चलना चाहता है। वह
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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