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________________ ३८० अनेकान्त स्वयं इसे करते, लेकिन तुम्हारा हमला ही बढ़ाते रहते हैं। क्योंकि उन्हें तुममे कुछ खास मुहब्बत नहीं । अपना मनोरञ्जन क्यों छोड़ें ? उन्हें तुम्हारे सुधारबिगाड़ क्या ?' [ वर्ष ४ महाराज भी मुस्कराते तो जरूर अगर कुछ कह नपाते ता । लेकिन युवराज तो जी खोल प्रशंसा करता। उसे इतना पसन्द आता यह सब, कि कुछ हद नहीं। मंत्री लांग भी गाहे-बगाहे हलकी तारीफ़ के एकाध शब्द निकाल ही बैठते । सम्भव है, कि युवराज या महाराज की दृष्टिपर विचार करते हुए. उन्हें ऐसा करना अनिवार्य हो जाता हो। पर यह ठीक है कि वे ब्रह्मगुलाल के बढ़ते हुए सन्मान या प्रशंसा-पूर्ण सत्कारम खुश नहीं थे । मनमें कुछ जलन थी । वैसी ही, जैसी कि किसी के उत्थान में कोई दुष्ट जलता है । और उस जनताकी नज़रों में गिराने के लिए, शत्रुता तक पर उतारू हो जाता है। प्रगुलाल सबकी सुनता और चुप रहता । उत्तर देनेकी ग़लती वह न करता । वजह इसकी यह कि वह अब इस रास्ते से हट नहीं सकता था । और तब, नकारात्मक उत्तर बुजुगों का अपमानके रूपमें होता, जो उसे मंजूर न था । कभी सोचता भी कि बंद करदे यह बहुरूपियापन । पर, जब बराबर के चार यार-दोस्त मिलते तो, मोचना सोचने-भर ही रह ज ता, क्रियात्मक न बनता । और यों, वह बराबर अपने काम में आगे बढ़ना गया, सहकारी था - 'मथुरामल ।' जो दोस्त था, जिगरीदोस्त ! 'कृष्ण-बलदेव' गम-रावण, आदि कितने ही अभिनय ऐसे होते जिनमें उसकी भी भाग मिलता । अभिनय कला पराकाष्ठ को पहुंच रही थी । किसी दिन 'मीता बनवास' था तो किसी दिन 'चीरहरण' । 'धेनु चरावन-लीला' हुई कल, तो आज 'कंस वध' । जब एक दिन घोड़ा बन कर श्राया तो जनता दंग रह गई। एक सिरेमं दूसरे छोर तक - 'कमाल है ।' - वाह, क्या बात है ?' - की आवाज गुँज उठी। सारा राज दबोर प्रशंसक बन चुका था, उमी तरह जैसी कि नगर में धूम थी । लाग उत्सुकतासं प्रतीक्षा करते- 'देखें, श्राज क्या रूप बन कर आता है ? और जब 'रूप' सामने आता तो कलेजा बाँसों उछलने लगता - मारे खुशीके। बच्चे ही नहीं, बड़े बड़े भी खाना-पीना भूल बैठते । चाहते देखते ही रहें। क्या हू-बहू नकल की है ? सुख मिलता उन्हें के दर्शन । X X x X बनाना जितना कठिन होता है, बिगाड़ना उतना ही आसान । मंत्रियोंने जब ब्रह्मगुलाल की यशस्विता मलिन करना विचारा, तो एक आसान तर्कीच सूझ ही गई। उन्होंने सोचा - 'या तो ब्रगुलालको कहना पड़ेगा कि यह स्वाँग मुझसे न होगा। या - जब स्त्राँग भर के लायेगा, तो खिचालन लिए बिना वापिस न लौटेगा । लेकिन यह होगा तब, जब युवराज स्वयं दर्वार में अपने मुँह से कहना स्वीकार करलें ।, X X X X [ ३ ] 'राम लीला' देखनेके बाद, खुशीसे चमक रहा था - लीला के उसे मंत्र-मुग्ध कर रक्खा था । युवराज उठा -मुँह रुचिर- मनोरजनन ७. सभा खचाखच थी । महाराज भी सिंहासनासीन हुए मुस्करा रहे थे । कि युवराजने कहना प्रारम्भ किया— 'ब्रह्म गुलालकुमार ! मैं तुम्हारे कामसे बहुत खुश
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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