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किरण २ ]
दत्तके इस कथन में सबसे पहले यह बात कुछ जीको नहीं लगती कि ' कांची' जैसी राजधानी में अथवा और भी बड़े बड़े नगरों, शहरों तथा दूसरी राजधानियोंमे भस्मक व्याधिको शांत करने योग्य भोजनका उस समय अभाव रहा हो और इस लिये समंतभद्रको सुदूर दक्षिण सुदूर उत्तर तक हजारों मीलकी यात्रा करनी पड़ी हो । उस समय दक्षिण में ही बहुतसी ऐसी दानशालाएँ थीं जिनमें साधुको भरपेट भोजन मिलता था, और अगणित
समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल
तक कोई अवसर नहीं मिल सका। सुहृदर पं० नाथूराम जी प्रेमीने मेरी प्रेरणा से, दोनों कथाकोशांमें दी हुई समन्तभद्रकी कथाका परस्पर मिलान किया है और उसे प्रायः समान पाया है । आप लिखते हैं— "दोनोमें कोई विशेष फर्क नहीं है । नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण पद्यानुवाद है । पादपूर्ति श्रादिके लिये उसमें कही कहीं थोड़े बहुत शब्द - विशेषण अव्यय श्रादिश्रवश्य बढ़ा दिये गये हैं । नेमिदत्तद्वारा लिखित कथाके ११ वें श्लोक में 'पुण्ड़ ेन्दुनगरे' लिखा है, परन्तु गद्यकथा में 'gesनगरे' और 'वन्दक- लोकाना स्थाने' की जगह 'वन्दकाना बृहद्विहारे' पाठ दिया है। १२ वें पद्यके 'बौद्धलिंग' की जगह 'वंदकलिंगं' पाया जाता है। शायद 'बंद' बौद्धका पर्याय शब्द हो । 'काच्या नग्माटकोऽहं' श्रादि पद्यांका पाठ ज्योका त्यों है। उसमें 'gustus' की जगह 'पुण्ढोराढ़' 'ठक्कविषये' की जगह 'कवि' और 'वैदिशे' की जगह 'वैदुषे' इस तरह नाममात्रका अन्तर दीख पड़ता है।" ऐसी हालतमें, नेमिदत्तकी कथाके इस मारांशको प्रभाचन्द्रकी कथाका भी सारांश समझना चाहिये और इस पर होनेवाले विवेचनादिको उसपर भी यथासंभव लगा लेना चाहिये । 'वन्दक' बौद्धका पर्याय नाम है यह बात परमात्मप्रकाश
देवकृतीका निम्न श्रंशसे भी प्रकट है—
" खवरणउ वंदउ सेवडउ, क्षपणको दिगम्बरोऽहं, बंदको बौद्धोsi, श्वेतपटादिलिंगधार कोहऽमितिमूढात्मा एवं म न्यत इति । "
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ऐसे शिवालय थे जिनमें इसी प्रकार से शिवको भोग लगाया जाता था, और इस लिये जो घटना काशी (बनारस) में घटी वह वहाँ भी घट सकती थी । ऐसी हालत में, इन सब संस्थाओंोंस यथेष्ट लाभ न उठा कर, सुदूर उत्तर में काशीतक भोजनके लिये भ्रमण करना कुछ समझ में नहीं आता । कथा मे भी यथेष्ट भोजनके न मिलने का कोई विशिष्ट कारण नहीं बतलाया गया - सामान्यरूपसे 'भस्मकव्याधि
विनाशाहारहानित:' ऐसा सूचित किया गया है, जो पर्याप्त नहीं है। दूसरे, यह बात भी कुछ असंगत सी मालूम होती है कि ऐसे गुरु, स्निग्ध, मधुर और श्लेष्मल गरिष्ट पदार्थोंका इतने अधिक (पूर्ण शतकुंभ जितने ) परिमाण में नित्य सेवन करने पर भी भम्मकाग्निको शांत होने में छह महीने लग गये हों । जहाँ तक मैं समझता हूँ और मैंन कुछ अनुभवी वैद्यांस भी इस विषय में परामर्श किया है, यह रोग भोजनकी इतनी अच्छी अनुकूल परिस्थिति में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकता, और न रोगकी ऐसी हालत मे पैदलका इतना लम्बा सफ़र ही बन सकता है । इस लिये, ' राजावलिकथे' में जो पाँच दिनकी बात लिम्बी है वह कुछ असंगत प्रतीत नहीं होती। तीसरे, समंतभद्र के मुखसे उनके परिचयके जो दो काव्य कहलाये गये हैं वे बिलकुल हो अप्रासंगिक जान पड़ते हैं। प्रथम तो गजाकी ओर से उस अवसर पर वैसे प्रश्नका होना ही कुछ बेढंगा मालूम देता है - वह अवसर तो राजाका उनके चरणों में पड़ जाने और क्षमा प्रार्थना करनेका था— दूसरे समंतभद्र, arratri लिये आग्रह किये जानेपर, अपना इतना परिचय दे भी चुके थे कि वे ' शिवोपासक ' नहीं हैं for ' जिनोपासक ' हैं, फिर भी यदि विशेष परि