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________________ हार - लड़वारी पुनीत जैन-ती (ले० 10- श्री यशपाल जैन, बी० ए०, एल-एल० वी०) * 1.4 $♫ +9 बुन्देलखण्ड जैन तीर्थोका मुख्य केन्द्र है। सोनागिरी, नैनगिरि तथा द्रोणगिरि सिद्ध क्षेत्रो के अतिरिक्त अन्य कई इस प्रान्त में स्थित है। उन्हीं में से एक तीर्थ है हार | २४ फरवरीको वहाँ जानेका दमें मौभाग्य प्राप्त हुआ । वैसे तीर्थकी यात्रा पैदल ही की जानी चाहिये, लेकिन समयाभाव के कारण हम लोग मोटर से गये । हाँ व्यक्तिगत अनुभवसे मैं एक बात कह दूँ । जिन मज्जनोको उक्त तीर्थ की यात्रा करनी हो, वे टीकमगढ़ से या तो पैदल जाँय या बैलगाडीसे । मोटरका सहारा तो भूलकर भी न ले । इतने धक्के लगते हैं कि सारा शरीर चकनाचूर हो जाता है। वैसे भी बैलगाड़ीसे श्रपेक्षाकृत दो-तीन मीलका फामला कम पड़ता है - टीकमगढ़ से करीब १२ मील प्राकृतिक दृश्य हार लड़वारीकी प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है । सुन्दर सुन्दर पहाड़ियाँ और लहलहाते खेत और वृक्ष । हार और लड़वारी थोड़े थोड़े फासले पर दो छोटेसे गाँव हैं। दोनों गाँवोंके बीच तीन तालाब हैं, जिनमें बड़ा तालाब 'मदनसागर' के नामसे प्रसिद्ध है। बरसात के दिनों में तालाब अपनी परिधि लाँघकर श्रापसमें मिल जाते हैं और तब उनकी शोभा वर्णनातीत होती है । हारके चारों श्रोर पहाड़ियाँ हैं । श्री शान्तिनाथ जैन पाठशाला के बरामदे में खड़े होकर इधर उधर देखनेसे शिमलाका स्मरण हो आता है । अद्वितीय मूर्ति-संग्रह लड़वारीसे निकलते ही मार्गमें इधर उधर पड़ी मूर्तियाँ मिलने लगती हैं । श्रहारके निकट दाँई ओरको एक प्राचीन मन्दिरके भग्नावशेष हैं। पर उनसे अनुमान होता है कि वद मंदिर बहुत विशाल रहा होगा । हार में तीर्थंकर भगवानांकी अनेक प्रतिमाएँ हैं, सभी खंडित । किमीका सिर नही है तो किमीका धड़, किसीका हाथ गायब है तो किसीका पैर । कहा जाता है कि यवनाने अपनी धार्मिक कट्टरता के वशीभूत होकर उनकी यह दुर्दशा की है। लेकिन जो भी अंग उपलब्ध हैं उनमे उनके निर्माताश्रोकी कार्यपटुताका पता लग सकता है। इन मूर्तिश्रांको प्राचीन वास्तुकलाका उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है | किसीके चेहरेपर दास्य हैं तो किसीके गम्भीरता । जान पड़ता है कि अगर शिल्पकारके बसकी बात होती तो निश्चय ही वह उनमें जान डाल देता । तब वे प्रतिमाएँ जो मृक बेबसी की हालत में पड़ी हैं, स्वयं ही अपनी श्रावाज मे अपने साथ हुए अत्याचारोकी कहानी श्रादमीके बहरे कानों तक पहुँचाती । किमी भी प्रतिमाको देख लीजिए, क्या मज़ाल कि खुदाई में बालभरका भी कही अन्तर हो । मशीन की निर्जीव उंगलियोसे श्राज बारीकसे बारीक काम किया जा सकता है, पर उस युगकी कल्पना कीजिये जिसमें मशीन नहीं थी और सारा काम इने गिने दस्ती श्रीजारोंसे होता था । जरा हाथ डिगा या छैनी इधर उधर हुई कि सारा बना बनाया खेल बिगड़ा | लज्जाजनक दृश्य एक बात देखकर हमें बड़ा खेद हुआ ! तमाम मूर्तियाँ पाठशाला के पीछे खुली जगह में पड़ी हैं। उनपर होकर श्राठ सौ बरसातें, जाड़े और गर्मी निकली हैं, लेकिन किसी भले मानसको यह भी नही सृझा कि उन्हें उठवाकर कहीं बन्द
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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