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________________ किरण ३ ] तामिल भाषाका जैनसाहित्य २२५ (०) 'चूड़ामणि' (३) 'उद्यानन कथै' (४) 'नागकुमार- हिन्दूधर्मके सिद्धान्तमें संशोधन होनेके पश्चातकी यह काव्य' और (५) 'नीलकंशी', ये पांचो लघुकाव्य रचना होगी। प्रसिद्ध वेदान्तिक विद्वान 'माधवाचार्य' जैनग्रंथकागेंक द्वाग रचे गए थे। ने वैदिक क्रियाकांड में यह हितकारी संशोधन किया, १-यशोधरकाव्य-संस्कृत माहित्यके जैन ग्रंथों कि चावल के आटेकी बनी हुई वस्तुके द्वारा पशुबलि में ग्रंथकार ग्रंथके आदि अथवा अंतमे अपना कुछ न का काम निकाला जा मकता है। यशोधर काव्यकी कुछ वर्णन दिया करते हैं, किन्तु इसके विपरीत कथाका यह स्पष्ट उद्देश्य है, कि इस प्रकारके सुधारके तामिल माहित्यम इम सम्बन्धमें ग्रंथकार पूर्णतया माथ भी वैदिक यज्ञविधि त्याज्य है। चारित्रका नैतिक मौन रखते है। प्रायः लग्बकवा नाम तक जानना मूल्य मन, वचन और कायकी एकतामें है । इस प्रकार कठिन होजाता है; उसके जीवनको विशेष घटनाओं की बलिम यद्यपि माक्षात् कृतित्वका अभाव है, किंतु की जानकारीकी बात ही निगली है। लेखककी बाकीकी दो बातोके सहयोगका प्रभाव नहीं पाया जीवन के सम्बन्धम हम कंवल प्रासंगिक माती पर जाता है । प्राणीवध करने की आकांक्षा, और इसके निर्भर रहना पड़ता है। कभी कभी एसी साक्षी लिए आवश्यक मंत्रोका उच्चारण वहां विद्यमान है अत्यंत अल्प रहती है और हमें प्रथकार तथा ही, अतः कृत्रिम पशुबलिको उसके स्थानमें स्थापित उसकी जीवनीकं मम्बन्धमें अपनी अज्ञानताको करनेसे मनुष्य पशुबलिके उत्तरदायित्वसं नहीं बच म्वीकार करना पड़ता है। यही बात इस 'यशोधर सकता। यह बात कथाका मूल उद्देश्य प्रतीत होती काव्य' के सम्बन्धम भी है। प्रायः लेग्वकके विषयमें है, जिसमें प्रसंग वश जैनधर्म-सम्बन्धी अनेक इमम प्राधिक कुछ भी ज्ञात नहीं है कि वह एक जैन सिद्धान्तोंका वर्णन किया गया है। इस लिए माधवभुनि थे । कथाकी प्रकृतिपरमं यही अनुमान हम कर तत्वज्ञानके संस्थापक द्वारा यज्ञ-विधानमें संशोधन मकते है कि 'माधवाचार्य' के द्वारा यज्ञ मम्बन्धी होजानेके बादकी यह कृति होनी चाहिये। (क्रमशः) कि इस "वह अधिक जानता है जो समझता है कि इस "भीतरसे बंध गये हो तो बाहरी बन्धन छोड़ दो।" अनादि अनन्त विश्वमेसे मैं कुछ भी नहीं जानता।" "जिसे श्रात्म-संयम कहते हैं, वह अपनी इच्छाके "एकान्तवादी मत बनो। अनेकान्तवाद अनिश्चयवाद विरुद्ध कार्य नही है । बल्कि कर्तव्य पालनके लिये है, नहीं है, किन्तु वह हमारे मामने एकीकरणका दृष्टिबिन्दु जिसमें कभी अपनी इच्छाके विरुद्ध न जाना पड़े, असत् उपस्थित करता है। इच्छा और प्रकृतिका दमन कष्टकर न हो, उस अवस्थाकी "किसी मनुष्यका चरित जाननेके लिए उसका विशेष प्राप्ति ही संयम-शिक्षाका उद्देश्य है । न समझकर पराई जीवन नही साधारण जीवन-दैनिक जीवन-देखना दृच्छा और श्राज्ञाके अनुसार काम करना, आत्म-संयम दृच्छा और आजाके अनमार । चाहिए। नहीं है। समझकर अपनी इच्छासे अपनी प्रवृत्तिको दबाने "मनुष्यकी दृष्टि उसके हृदयका प्रतिबिम्ब है।" का नाम ही श्रात्म-संयम है।" "सर्वोत्तमता जहा कही होती है, कार्यके रूपमें होती "स्वार्थ-परताका संयम मच्ची स्वार्थ-परताकी प्राप्तिका है। कारणके रूपमें नहीं।" उपाय है।" -विचारपुष्पोद्यान
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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