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________________ २७० भनेकान्त [वर्ष ४ देग्वा-एक दरिद्रमा, भिग्वारीसा, पागलसा, गेगीसा दीग्वती है । महागज मधुके साथ जो व्यवहार उसका व्यक्ति चिल्लाता, गेता कलपना भागा जा रहा है। है, वह पत्नीत्वके आदर्शका द्योतकसा लगता है। पहिचाना-यही तो बटपुरके राजा वीरसेन थे, उम दिन दोपहर होने आया, पर, महाराज महल उमके पति ! में न पधारे । चन्द्राभा भूखी बैठी प्रतीक्षा करनी क्या दशा हो गई है उसके बिना ? रही ! पनिमं पहले ग्मोई पा लेना, स्त्रीके लिए कलंक कि चन्द्राभाकं महम एक चीस्त्र निकल ही गई। जो माना जाता है ! वीरमन रुक गए। दवा-चन्द्रामा महलकी दोपहर ढला! पर, महागज न आए, न आए ! छत परमे देख रही है ! वह बैठी रही। भूख उसे लग रही थी, सिग्में और वह दौड़ गए-पागलकी तरह ! कुछ कुछ पीडाका अनुभव भी हुश्रा । पर, उस बैठना x x x x था, बैठी रही! कुछ दिन बाद, एक दिन ___तीसरे पहर महाराज महलोंमें पधारे, कुछ गंभीर, चन्द्राभान सुना कि वीरसेन 'मंडवी' साधुके कुछ थक-माद । उच्च प्रामन पर विगजे, महारानी आश्रममें संन्यामी हो गए हैं। ने मुम्कग कर सत्कार किया। महागज भी मुम्कगये, x x x x हाथ बढ़ाकर महागनीको समीप बैठाला। दोनोंके मुग्व- मल विकासमय थे। रोज-रोज दवा खानेसे जैसे दवा खगक बन 'आज इतने अधिक विलम्बका कारण क्या है ? जाती है । उसी तरह पाप पुगना होने पर, पुण्य ता -जान सकती हूं-क्या ?'नहीं बन जाता लेकिन यह जरूर है कि उसकी क्यों नहीं । एक जटिल न्याय आगया था, उसी चर्चा नहीं रहती, गिला मिट जाता है, लोग उसे सह- में देर लग गई !' सा जाते हैं। स्मृति, धुंधली हो जानेसे स्वयं पापी भी ऐसा क्या मुकदमा था, जिमका फैसला देते देते उसमें कुछ बुराई नहीं देख पाता। दिन बीत चला ! भोजन तककी फिक्र भूल बैठे ?' कई वर्षे बीत चली! 'एक पर-स्त्री-सेवीका मामला था। उसका ।' चन्द्रामा पटगनी और महागज मधु दोनों पर-स्त्री-संवीका ? आपने उसका क्या किया ? सुखोपभोगमें रहते चले आए । पिछली बातें बिल्कुल सन्मान किया, न ?'-चन्द्राभाने बात काटकर पूछा ! भूली जा चुकी हैं। कोई गिला, कोई ग्लानि या वैसी 'सन्मान ? पापीका सन्मान होता है कहीं ? उस ही कोई चीज़ कभी किसी के मनमें नहीं उठी। वर्षोंके तो सजा मिलनी है-सजा !' लम्बे अन्तरालने उनकी कटुताको जैसे मिठासमें क्यों ?' तबदील कर दिया हो! तुम बड़ी भोली हो चन्द्रमा ! कुछ समझती नहीं ! चन्द्राभाकं मनमें क्या है, इसे तो कोई नहीं अरे, पर-स्त्री-संवन पाप होता है पाप ! बहुत बड़ा जानता। लेकिन वह सदाचरणमें एक गृहस्थिनसी पाप! वही उसने किया था। पापी था दृष्ट! न धर्म
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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