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________________ २६० भनेकान्त [वर्ष के इस विकसित साहित्य युगमें कथा-साहित्यकी जो करते हुए प्रारंभिक योगावस्थास लगाकर अन्तिम उपयोगिता, कला-निदर्शन, औरमना-वैज्ञानिकता योगावस्था तक अर्थात् आत्मिक सोच विकासको मानी जानी है तथा कही जानी है, उसका पृग पूग अवस्था तककी क्रमिक वृद्धिका व्यवस्थित रूप देनके प्रस्फुटन ममगडचकहा में पाया जाता है और देग्या लिए मम्पूर्ण योग मार्गको पाँच भूमिकाओंमें विभाजाता है। जित करते हुए प्रत्यक भूमिकाका म्वरूप खूब ही योग-साहित्य माफ दिखलाया है । साथम उल्लेखनीय बात यह है यदि हरिभद्र सूरिके जीवनका सूक्ष्म-गतिम कि जैन, बौद्ध और पाताल योगसम्मत योगपरिभाअध्ययन किया जाय तो प्रतांत होगा कि आपका षाओं में केवल शब्दगत भिन्नता है न कि तात्पर्यमय जीवन योगमय ही था। अतः इन द्वारा योग-विषयक भिन्नता-इम रहस्यका विद्वतापूर्ण तिन बनला कर कृतियोंका भी ग्चा जाना काई आकस्मिक घटना सम्पूर्ण भारतीय योग-ध्येयको एक ही स्थान पर नहीं है, बल्कि जीवन की धागका म्वाभाविक विकास लाकर खड़ा कर दिया है। ही कहा जायगा। तदनुसार योग-विषयक इनकी अध्यात्म, भावना, ध्यान, ममता और वृति. कृसियाँ अखिल भारतीय योगासहित्यमे एक विशेष __ मंक्षय ये पांच भूमिकाएँ हैं। पतंजलि इन से प्रथम वस्तु है । षोडशक, योगविन्दु, योगदृष्टि-समुच्चय चारको संप्रज्ञात और अंतिमको असंप्रज्ञात कहते हैं। और योगविंशिका-ये चारों इनकं योगविषयक ग्रंथ ___ योगदृष्टिममुच्चयमें अपुनर्वध, अवस्थाम पूर्वहोने पर भी इनमें-प्रत्यकम-परस्पर कुछ न कुछ कालीन आत्मिक अवस्थाको घिष्टि नाम दिया है नवीनता और गंभीरताकृत पृथक्ता है। और इस दृष्टि को विभिन्न दृष्टान्तोंसे सम्यक्-प्रकारेण योगका तात्पर्य है-आध्यात्मिक विकाम । इम समझाया है। घिष्टिकी समाप्ति के बाद उत्पन्न विकासके क्रमका भिन्न भिन्न ग्रंथों में आपने भिन्न भिन्न होनेवाली आध्यात्मिक विकासमय मंपूर्ण दृष्टिको रीतिसे वर्णन किया है। फिर भी ध्यय और तात्पर्य यागष्टि कहा है । यह योगष्टि आठ भूमिकाओंमें तो एक ही है-और वह है मुक्ति कैसे प्राप्त हो। विभाजित की गई है । एवं इन आठ भूमिकाओंकी विषयके एक ही होने पर भी वर्णनशैलीकी विशेषता तुलना पातंजल योगदर्शन सम्मत यम, नियम, आसन, के बल पर वस्तु-विषय में नवीनता और रोचकता या प्राणायाम आदि पाठ योगांगोंके साथ की गई है। प्रथम चार भूमिकाओं में पूर्णताके अभावस अविद्या ___ योगविन्दुमें प्राचार्यश्रीने लिम्वा है कि अपुन- का अल्प अंश रहता ही है। इस लिये इनका नाम बंधक अवस्था ही विकासका बीज है। यहींसे जीव अवेद्यसंवा दिया गया है । और अंतिम चारम मोहसे प्रभावान्वित नहीं होकर मोह पर ही अधिकार पूर्णता पाप्त होजाती है, अर्थात अज्ञान-अंश सर्वथा करता जाता है। यही योग मार्गकी प्रारंभिक अवस्था नष्ट होजाता है, इसलिये इनका नान वेद्य-संवेद्य है और तदशान यहींसे जीवमें सात्विक गुणोंका दिया है। इसके माथ साथ इन अन्तिम चार दृष्टियों उत्तरोत्तर विकास होने लगता है। इस प्रकार वर्णन में जो आध्यात्मिक विकास होता है, उसका इच्छा
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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