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________________ वैवाहिक कठिनाइयाँ [ ले०-श्री० ललिताकुमारी जैन, पाटनी 'विदुषी' प्रभाकर ] m munomments S AMS वाहका प्रश्न आज हमारे समाजमें सकेगे। हम जो कुछ कर रहे हैं वह क्या वास्तव में विवाह ) कितना कठिन और समाधानहीन हो की सम्पूर्णताके लिये किया जा रहा है, इसकी भोर तो किसी रहा है यह किसीमे भी अविदित का रयाल ही नहीं है। उनका ध्यान महज़ अपनी अच्छी नहीं है। इसको सुलझाने और सरल और बुरी लगनेवाली बातों पर रहता है। ऐसा देखा जाता करने का जितना अधिक प्रयत्न किया है कि अपने घरमें विवाह होते समय लोग कोई भी रीति गया नाम लिखीता बता जात या रिवाज विवाहकी सम्पूर्णताके लिए नहीं करते किन्तु यह प्रश्न इतना जटिल और पेचीदा क्यों हो गया और लोग अपनी मान-मर्यादाकी रक्षाके लिये करते हैं। यह होरपदी इसकी कठिनाइयोंके सामने क्यों विवाहको एक जंजाल और जाती है कि किसने किससे ज्यादा पैसा खर्च किया ? इज्जत उलझन समझने लगे इस पर जिन विद्वानोंने गम्भीर विचार और मानके क्षेत्रमें कौन किससे भागे बदा ! समझमें नहीं किया उनका मत है कि हमने हमारी ही भूलों और ग़ल आता कि विवाह के समय लोग विवाहकी रक्षा करने की तियोंसे विवाहके मार्गमें ऐसे-ऐसे कांटे बो दिए जिनके कारण चेष्टा न करके मान-मर्यादाकी रक्षा क्यों करते है ? इस मानकदम-कदम पर हमारे पांव फटते हैं और हम उसके उद्देश्य मर्यादा ही मान-मर्यादामें एकसे एक कुरीति बढ़ती हुई चली तक पहुंचने में सफल नहीं हो सकते । गई और आवश्यक तथा अभिवार्य रस्मों की असलियत पर हमने हमारी ही मूर्खतासे ऐसे बेशमार रीति-रिवाजोंको भी स्याही पोत दी गई। मैंने मेरे पूज्य बाबा साहब मे बढ़ा लिया है, जिनमें अधिक से अधिक आर्थिक हानि भी " हमारी विवाह प्रणाली के सम्बन्धमें कुछ ज्ञान प्राप्त करमेकी उटानी पड़ती है और विवाहके मौलिक स्वरूप पर भी कुठा इरछासे यह पूछा कि हमारे यहाँ कौन-कौनसे रीति-रिवाज राघात होता है। यही कारण है कि विवाह-जैसे शुद्ध और किस-किस तरहसे मनाये जाते हैं. तो उन्होंने मुझे दो मह. मौलिक संस्कार को हमने सैंकड़ों ही अनावश्यक रीतिरिवाजों जरनामे दिए । एक महजरनामा दि. जैन समाज जयपुरके से ऐसा माच्छादित कर दिया है कि अब उसकावास्तविक रूप द्वारा ई० सन् १८८४ में पास किया हुआ है और दूसरा ई. टूटने में भी बड़ी कठिनाइयां हो रही हैं । हमारी विवाह- सन् १२३ म पास किया हुमा सन् १९२३ में पास किया हुया है। इन दोनों ही महजरप्रणालीको देखकर यही कहा जा सकता है कि लोग अपनी . नामोंको देखकर यह समममें पाया कि हमारी एक भी रीति सन्तानके विवाहके समय यह सोचने और सममानेकी विल्कुल ऐसी नहीं है जो विवाह की सम्पूर्णताके लिए की जाती हो। चेष्टा ही नहीं करते कि विवाहका तस्त्र कहां छिपा हुआ है यद्यपि इन महजरनामोंमें रीति-रिवाजोंमें किए गए फिजूल और उस तत्वको नेके लिये हमें क्या करना चाहिए। खर्च पर रोक लगाई गई है, लेकिन वास्तविक बात तो यह हमारी इन पुरानी रूढ़ियों और रीति-रिवाजोंमे वर और कन्या है कि उनमें १५ प्रतिशत रीतिरिवाज तो ऐसे हैं जो विवाह कहां नक उसके उत्तम उद्देश्य और मधुरफलको प्राप्त कर से कतई सम्बन्ध नहीं रखते । हमारी प्राचीन विवाह-पद्धति
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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