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किरण १.]
वीरनिर्वाण संवत्की समालोचनापर विचार
उल्लेख ही नहीं किया जाता । ऐम कितन हा दिगम्बर बाद शकराजाका उत्पन्न होना बतलाता है । नीन प्रन्थ प्रमाणमें उपस्थित किय जासकते हैं जिनम मत धवल' प्रथम उपलब्ध हात है, जिनमें से दो तो स्पष्टरूपमे शालिवाहन शकसंवत्का उल्लख है। त्रिलोकप्राप्त वाले ही हैं और एक उनमे भिन्न है। ऐसी हालनमे यदि किमी संहिताक मंकल्पप्रकरणमे श्रीवीर सनाचार्यन 'धवल' में इन तीनो मतोको उद्धृत उदाहरणादिरूपमं विक्रमगजाका अथवा उसके करनेके बाद लिखा हैमंवत्का उल्लंग्य श्रा भी गया है ना वह प्रकृन विषय “एदसु तिसु एक्कण हादव, गण तिएणमुवदसाणमञ्चत्तं के निर्णयमे किस प्रकार उपयोगी हो सकता है. यह प्राणायणविगहादा । तदा जाणिय वत्तव्वं ।" उनके इम प्रमाणन कुछ भी मालूम नहीं होता, और अर्थात-इन नीनामें एक ही कथन ठीक होना इम लय इम प्रमाग का कुछ भी मूल्य नहीं है । इस चाहिये, तीनों कथन सच्चे नहीं हो सकते; क्योकि तरह आपक पाँची ही प्रमाण विवादापन्न विषयकी तीनोम परम्पर विगंध है । अतः जान करके-अनुगुत्थीका सुलझानका कोई काम न करनस निर्णय- मन्धान करके-वर्तना चाहिये। क्षत्रम कुछ भा महत्त्व नहीं ग्यत; और इमलिय इस प्राचायवाक्यस भी स्पष्ट है कि पुरातन हाने उन्हें प्रमाण न कहकर प्रमागाभाम कहना चाहिय। से ही काई कथन मचा तथा मान्य नहीं हो जाता ।
उसमें भूल तथा गलनीका होना संभव है, और इमी कुछ पुगतन विद्वानोन ‘शकराजा' का अर्थ यदि
से अनुसन्धानपूर्वक जाँच पड़ताल करके उसके ग्रहणविक्रमगजा कर दिया है ना क्या इतनम ही वह
त्याग।। विधान किया गया है। प्रेमी हालतमे शास्त्री अर्थ ठाक तथा ग्राह्य ह । या ? क्या पुगतनाम काई
जीका पुराननोकी बात करते हुए एक पक्षका हो गहना भूल तथा गलती नही हानी और नहीं हुई है ? यदि
और उम विना किमी हेतुके ही यथार्थ कह डालना नहीं होती और नहीं हुई है ता फिर पुगतना-पुगतना विचार तथा ममालांचनाकी कोरी विडम्बना है। मे ही कालगणनादिक मम्वन्धमे मतभेद क्यो पाया यहॉपर में इतना और भी बतला देना चाहता हूँ जाना है ? क्या वह मतभेद किमी एककी गलतीका कि इधर प्रचलित वीरनिर्वाण-संवतकी मान्यताक सूचक नहीं है ? यदि मूचक ना फिर किमी एक विषयमं दिगम्बर्ग और श्वनाम्बगेम परम्पर काई पुगतनन यदि गलनीस 'शकागजा' का अर्थ विक्रम- मतभेद नहीं है । दाना ही वीरनिर्वाण ६०५ वर्ष ५ गजा' कर दिया है ता मात्र पुरानन हान की वजहस महीने बाद शकशालिवाहनक संवतकी उत्पनि मानते उमक कथनको प्रमाण काटिम क्यो किवा जाना है हैं। धवलसिद्धान्नमें श्री वांग्सनाचार्यन वीरनिर्वाण
और दूसरे पुगतन कथनकी उपेक्षा क्यों की जाती संवनको मालूम करनकी विधि बनलान हुए प्रमाणहै ? शकगजा अथवा शककाल के हो विषयम दिगंबर रूपसं जो एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है वह इम साहित्यमें पाँच पुगतन मनोका उल्लेग्य मिलता है, प्रकार हैजिनमेंसे चार मन तो त्रिलोकप्रज्ञप्तिमं पाये जाते हैं वीरजिणे मिद्धिगदे च उमद-इगाट वासपरिमाणे । और उनमें सबसे पहला मन वीरनिर्वाण में ४६१ वर्प कालंमिश्रदिक्कत उप्पएणो एत्य सगरायो ।