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________________ तामिल - भाषाका जैनसाहित्य ( मूल ले० प्रो० ए० चक्रवर्ती M. A. I. E. S. ) [ श्रनुवादक - पं० सुमेरचन्द जैन 'दिवाकर' न्यायतार्थ शास्त्री, H. A. LL.B.] (किरण नं० ६-७ से आगे ) चौ "ये 'मोक्कलवादच रक्कम्' अध्यायमे मोक्कल नामके बौद्धगुरु के प्रति नीलकेशीके द्वारा दिए गए चैलेंज का वर्णन है | मोक्कल ग्रन्तको पराजित होकर प्रतिद्वन्द्वका धर्म धारण करता है । यह पुस्तक के सबसे बड़े अध्यायोंम से है, क्योंकि इस अध्याय में बौद्धधर्मके मुख्य सिद्धान्तोकी विस्तृत चर्चा की गई है। हममें मोक्कल स्वयं नीलकेशीको बौद्धधर्मके स्थापकके समीप भेजता है । 'बुद्धवाद चरुवकम्' नामका पाँचवाँ अध्याय वादके अर्थ नीलशी और बुद्ध के सम्मिलनका वर्णन करता है । बुद्धदेव स्वयं इस बातको स्वीकार करते हुए बताए जाते हैं कि उनका हिसा सिद्धान्त उनके अनुयायिया द्वारा परमा र्थतः नहीं पाला जाता है । वे इस बातको स्वीकार करते हैं क हिसाका नाम जपना मात्र धर्मका उचित सिद्धान्त नहीं है; व अन्त अपने धर्मकं असंतोषप्रद स्वरूपकी स्वीकार करते हैं, अहिसा तत्वक संरक्षण के लिए उसक पुनःनिर्माण की बात स्वीकार करते है। इस तग्छ प्राकूकथन सम्बन्धी अध्याय के अनन्तर चार अध्याय बौद्धधर्मक विवादमं व्यतीत होत है । इसके पश्चात् अन्य दर्शन क्रमशः वर्णित किए गए हैं । छठे अध्यायमें श्राजीवकधर्मका वर्णन है, उसे 'श्राजीवक वाद चरुक्कम्' कहते हैं । श्राजीवकधर्मका संस्थापक महावीर और गौतमबुद्ध के समकालीन था । बाह्य रूपमें श्राजीवक लोग जैन 'निग्रन्थो' के समान थे। किन्तु धर्मके विषय में वे जैन और बौद्धधर्मोसे श्रत्यन्त भिन्न थे । यद्यपि तत्कालीन बौद्ध लेखकोने श्राजीव कोंके सन्बन्ध में किसी प्रकारकी गलत मान्यता नहीं की, किन्तु बाद के भारतीय लेखकाने अनेक बार उनको दिगम्बर जैनियोंके रूपमें मानकर बहुत कुछ भूल की है। श्राजीवक सम्बन्धी इस अध्याय में नीलकेशीका लेखक पाठकों को इस प्रकारकी भुलमे सावधान करता है और इन दोनो मतों के बीच में पाए जाने वाले मौलिक सिद्धान्तगत भेदांका वर्णन करता है। सातवे अध्याय में सांख्य सिद्धान्तकी परीक्षा की गई है। इससे इस अध्यायको 'सांख्यवाद चरुक्कम्' कहा गया हूँ । वे अध्याय में वैशेषिक दर्शनपर विचार किया गया है। लेखक दार्शनिक विषयों जैन तथा प्रजेन सिद्धान्तोंके मध्यमं पाये जाने वाली समताको सावधानता पूर्वक प्रकट करता है और वह अपनी टांटम श्रहिमा मूल सिद्धान्तको कायम रखता है । नवम अध्यायमं वादक कर्मकाण्डकी चर्चा की गई है, इससे उसे 'वेदवादच कम' कहते हैं । इस श्रध्यायमं बादक क्रियाकाण्ड में होने वाली पशुबलिका ही खण्डन नहीं किया गया है कि वैदिक क्रियाकाण्ड पर स्थित वर्णाश्रम धर्मकी मार्मिक आलोचना भी कीगई है। लेखकने यह स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है कि जन्मके आधार पर मानी गई सामाजिक विभिन्नताका श्राध्यात्मिक क्षेत्रमें कोई महत्व नहीं है और इसलिए धर्ममें भी उसका कोई महत्त्व नहीं है। धर्म की दृष्टिसे मनुष्यों में एकमात्र चरित्र, संस्कार
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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