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भनेकान्त
[वर्ष ४
णियदेहावसंतयह जइजाणिउ परमत्थ ।। (४१) -'शिव बिना शक्ति एवं शक्ति बिना शिव अकर्मण्य और -'सभी कहते हैं, वन्दना करो, बन्दना करो कन्तु संपूर्ण हैं । दोनोंके इम मौकी उपलब्धि करनेसे समस्त यदि अन्तर-मन्दिरस्थित देवता को उपलब्ध कर ले. तब जगत, जो मोहविलीन है, समझमें श्रा जाता है।' और किसकी वन्दना बाकी रहेगी?
रामसिंह मुनिके मतसे इम ममरसकी बात केवल कानसे देह महेली एह वढ तउ सत्तावइ ताम ।
सुन लेनेसे ही नहीं होती, इसके लिए चाहिए निरंतर चित्त णिरंजणु परिण सिहं समरसि होइण जाम(६४) सत्य-साधना । इसीलिए मुनिजी कहते हैं :-'श्रीरे मूद, यह विहिणी काया उतने दिन ही दुःख . हउ सगुणी पिउ णिग्गुणउ णिलक्खण णीसंग। देगी. जितने दिन निरंजन मनके साथ परमात्माका मिलन एकहिं आंग वसंतयहं मिलिउण अंगहिं अंगु ॥ नहीं होता , उमी मिलनका ही नाम ममरस है।'
-'मैं मगुण हैं, और वे गुणातीत हैं ; लक्षणातीत हैं, मणु मिलियउ परमेसरही परमेसरु जि मणस्स। संगातीत हैं। दोनों एक साथ वास करते हैं। फिर भी
र दोनों में अंगसे अंगका मिलन नहीं होता।' बिगिण वि समरजि हुइ रहिय पुज्ज चडावउं कस्स(४५) दीनाम
किन्तु साधना-द्वारा उस योगका साधन करना होगा। -'मन जिम ममय परमेश्वर के साथ और परमेश्वर जिस ममय मनके साथ मिल जाते हैं, उसीको समरस कहते हैं;
समरस-माधना सिद्ध होनेपर मालूम होगा कि त्रिभुवन तब किमकी पूजा की जाय ? |
शून्याकार प्रतीयमान होकर भी कुछ शून्य नहीं है ; मकल जिमि लाणविलिज्जा पाणियह तिम जड चित्तविलिजज शून्यको पूर्ण कर के विराजमान है-एक ही परम परिपूर्णता:समरसि हूवइ जीवडा काहं समाहि करिज्ज ।। (९७६) सुण्ण ण
सुगणं ण होइ सुण्णं च तिहुवणे सुगणं ॥ (२१२) -'जलम जिम तरह लवण मिल जाता है, उस तरह
यही मरमी साधनाकी चरम और परम बात है। यदि चित्त ब्रह्मानन्दमें विलीन हो जाय, तभी जीव सभरम
इसी बात को प्रायः पाँच शताब्दी बाद भक्त कवियोने फिरसे होगा । तब फिर किसलिए ममाधि की जाय ?
श्राकाशमं प्रतिध्वनित किया। सब विस्मृत महासल्योको इस भावकी अपेक्षा गम्भीरतर मरमी भाव क्या और वे फरम अपने जीवन में उपलब्ध करके मूतिमान कर कहीं हमने पाया है ? मुनि रामसिंह कहत हैं :
गए। कबीर-प्रभृति के बाद यह प्रेम साधना अचेतन अधिरेण थिग मइलेण णिम्मला णिग्गुणेण गुणसारा नहीं रही। श्रानुमानिक १६१५ से १६७५ ईस्वी तक कारण जा विढप्पड़ सा किरिया किरण कायव्वा।।(१९)
जैन साधक अानन्दघन जीवित थे । वे एक साथ ही -'उन्हीं स्थिर देवताके माथ इस अस्थिर देहका, निर्मलके
माधक और कवि थे। उनकी अपूर्व कविताके विषयमें साथ मलिनका, गुणमारके माथ निगुणका योग-साधन यदि मैंने पहले थोड़ी-बहुत अालोचना की है : जो उसके कर लिया जा सकता है. तब वही क्यों न कर लिया जाय? विषयमें उत्सुक हो, वे प्राय: १० वर्ष पहलेकी 'प्रवासी'यही तो देहकी परम सार्थकता है।'
पत्रिका (व० सं० १३८८ कार्तिक-अंक) देख सकते हैं। यह प्रेम-योग केवल मेरा ही श्राकाँक्षिन है, ऐमी बात हिन्दीकी 'वीणा' पत्रिका तथा अंगरेजीकी विश्वभारती' तो नहीं है : दोनों ओर व्याकुलता न होनेर तो प्रेम नहीं त्रैमासिक पत्रिका में भी मैंने इसी सम्बन्ध में लिखा था। हो सकता। वे भी जो प्रेम-मिलनके लिए श्राकांक्षित हैं; श्रानन्दघन शुद्ध मरमी थे। जैसी उनकी वाणी उदार वे शिव है, मैं शक्ति हूँ; मुझे छोड़कर वे व्यर्थ है और है. वैसी ही उममें गम्भीरता भी है और वैसा ही उसका उन्हें छोड़कर मैं व्यर्थ हूँ। 'श्रानन्द-लहरी' में श्रीमद्- अपर्व सौन्दर्य तथा उमकी रसममृद्धि भी है। श्राज शंकराचार्य करते हैं:
उनकी बातका केवल उल्लेख मात्र किया है। और भी शिवः शक्त्यायुक्तः प्रभवति।
जो सब जैन मरमी कवि हैं, उनके नामका उल्लेख भी न चेद एवं देवो न खलु समर्थः स्पन्दितुमपि॥ -इसकी अपेक्षा गभीरतर मरमी सत्य और नहीं। मुनि
नहीं किया जा सका। प्रयोजन होनेपर और कभी उनकी
आलोचना की जा सकेगी। रामसिंह भी कहते हैं:सिव विणुसत्तिण वावरइ, सिउ पुणु सत्तिविहीण। कलकत्तेके जैन-समाज द्वारा मनाए गए पर्युषण पर्व दोहि मि जाणहिं सयलु जगु बुझा मोहविलीण ॥ पर दिया गया भाषण। -[विशाल भारतसे उद्धत ]