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किरण १]
विवाहका उद्देश्य पांच दिन बाद बारात घर पहुँची। बड़ी ही नहीं जाना चाहती थी, लेकिन साथ ही उस उसका खुशी और धूम-धामसे बधाई हुई। लड़केके पिता यौवन सता रहा था। अकलचंद सेठ तो फूले नहीं समाते थे। पांचसौ रमेश की परीक्षा नजदीक आई हुई थी। वह रुपये टीकेके मिले, दस हजारका माल दहेजमें आया भरसक प्रयत्न कर परीक्षामें शानके साथ उसीर्ण
और लड़केकी बहू भी सुन्दर, सयानी, घरका काम- होना चाहता था। वह अपने कमरे में बैठा रातको काज देखने में होशियार थी।
बारह बजे तक अभ्यास किया करता, बादमें शयनलेकिन उस कोमल बालकके हृदयपर, जिसे गृहमें जा सोता और सुबह पांच बजे ही उठ खड़ा युवावस्था तो दूर रही, अभी किशोरावस्थाको भी हाता। उसे यह खयाल ही नहीं आता कि वह पार करनेमें बहुतसे वर्षोंका समय बाकी था, इसका विवाहित है। उसने अभी तक 'अर्धाङ्गिनी' शब्दकी काई विशेष प्रभाव नहीं हुआ। वह पूर्वकी तरह परिभाषाको भी पूरी तौरपर नहीं समझ पाया था। म्कूल जाने लगा। लेकिन आज जब वह स्कूलसे उसे प्रेमका व्यावहारिक अर्थ भी मालूम नहीं था। लौटा नो उमका मुंह कुछ उदासीन था । कारण क्या वह समझता था कि स्त्रियोंको घरका काम काज करने हो सकता था ? यही कि आज लड़कोंने मिलकर के लिये ही पर घरसं शादी कर वधूक रूपमें लाया बचपनमें शादी करने के लिए उसकी खुब हँसी उड़ाई जाता है। लीला विचारी अपना दुख अपने आप थी। खैर, बात पुरानी होगई और वह भी इन बातों ही को सुनाने के सिवाय और कर ही क्या सकती थी !! का अब बुग नहीं मानता था। __रमेश तो अपने दिन स्कूल में काटता था, लेकिन एक दिन लीलाने नींद न ली । रमेश जब सोने उसको नववधू लीलाकी क्या हालत थी? क्या उसके केलिए कमरे में आया तो वह उसका हाथ पकड़कर पिताने उसे रमेशका ब्याहा था या उस घरको जोकि उस नम्र शब्दोंमें बोली, “आप तो सारे दिन अपनी पढ़ाई का ससुगल था। दिन भर वह घरके काम-काज देखा में ही लीन रहते हो, कभी मुझ प्रभागिनीकी भी करती, न कभी बाहर जाना और न किसीसे मिलना। खबर लेनेका विचार दिलमें लाते हो या नहीं।" खाने-पीने, पहनने-प्रोदनेको घरमें काफी था। शारीरिक रमेशके लिए यह सब नई बातें थीं, वह नहीं थकावट लाने वाला काम भी उसके लिए कोई नहीं समझ पाया कि लीलाके कहनेका क्या अभिप्राय है। था । घरमें नौकर चाकर काफी थे। फिर भी वह वह बोल उठा, "तुम्हें क्या चाहिए सो अम्माजीसे दुखी थी। वह जवान थी। उसका यौवन वहाँ धूलमें माँगलो। मुझे बातें करनेको समय नहीं है। मुझे मिल रहा था । वह भी समझती थी कि उसके जीवन नींद लेने दो, सुबह जल्दी उठना है ।" लीलाके का वहाँ नाश होरहा है। लेकिन वह कर ही क्या हृदयको धकासा लगा, वह चुपचाप सोगई। लेकिन सकती थी ? अपने दिलमें उमड़ी हुई बात लोहूक उसके हृदयमें जो आशाकी बेल उगी हुई थी, वह चूंटकी तरह वह नीचे उतार लेती थी। इसे समाजमें इन शब्दोंसे कैसे मुरझा सकती थी। अपने कुलकी शान रखना था, यह मर्यादाके बाहर लीला पढ़ी लिखी भी तो कहाँ थी। इसे न