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मेंडकके विषयमें शंकासमाधान
(ले०--श्री नेमिचंद सिंघई, इंजीनियर )
‘मेंडकके विषयमें एक शंका' शीर्षक लग्ब 'अन- आगमनका भगनाद सुनकर उस मेंडकके भी अहंतकान्न' तथा 'तारणबन्धु' दोनों पत्रों में देखनेमें भक्ति करनेके भाव उमड़ पड़ते हैं, बिचारा एक पाया । लेखकने प्राचार्यश्रीके प्रति तथा प्रथमानुयोग कमल का फूल मुंहमें दबाय समवसरणकी ओर जाता ग्रंथोंके प्रति जो उद्गार दिये हैं व जैसके तैस विना है, किन्तु राम्तमें ही गजा श्रेणिकके हाथी के पैर तले संपादकीय नोटके 'अनकान्त' जैम पत्रमें छप गये, दबकर मर जाता है । उम मभय शुभ भावोंक पही आश्चर्य की बात है । अस्तु ।
कारण वह प्रथम मौधर्म म्वर्गमें महद्धिक देव उत्पन्न इसके उत्तर भी 'जैनमित्र' में आगये हैं तथा इस हाता है । वहाँ से वह तत्काल ही भगवान महावीर बामकी पुष्टि होगई है कि मंडक सन्मन और गर्भज म्वामीक समवसरणम बड़ी विभूतिक माथ मुकुट पर तथा मैनी और अमैनी दोनों प्रकार होते हैं।
मेंडककं चिन्हको धारण किये हुए आता है, जिस
दग्वकर मब लोगांको अत्यन्त आश्चर्य होना है। हम लोगों को जो बरसाती मंडक देखनेमें आने
इस कथानकमें उसका महद्धिक दव हाना खास है वे प्रायः मन्मूर्छन ही हुआ करते हैं; किन्तु बड़े
बात है, और इस बातकी पुष्टि मागारधर्मामृत तालाब या बावड़ीमें मंडकक युगल भी देखने में आते।
अध्याय २ श्लोक २४ में भी होती है । यथाहैं, इस बात की पुष्टि श्रीयुन संठ वीरचन्द कादरजी
यथाशक्ति यजेताह हेवं नित्य महादिभिः । गान्धी, फलटण ने अच्छी तरह की है।
संकल्पतोऽपितं यष्टा भेकवस्वर्महीयते ॥ २४ ॥ जिस समय हम कथानकको देखते हैं तब हमें यहां पर मेंडकको जातिम्मग्गा हाना, पूजाके मालूम होता है कि वह मेंडक पहले संठजीका जीव भाव उत्पन्न होना तथा प्रथम स्वर्गमें महर्द्धिक देव था किन्तु सामायिकके समय परिणाम बिगड़ जानके उत्पन्न होना यह सिद्ध करता है कि वह 'सैनी' कारण तथा ऐसे ही समयमें प्रायु क्षीण होजानेके (संज्ञी) था जो कि श्रीमान संठ वीरचंद कोदरजीके कारण अपने ही घरकी बावड़ीम मेंडक उत्पन होता विधान के अनुसार बिल्कुल ठीक तथा युक्तिपूर्ण है। है। बाद में उसे अपनी पूर्वभवकी स्त्रीको देखकर थोड़ी देरके लिए मान भी लिया जावे कि जाति-स्मरण होजाता है, जिसके कारण उसके परि- वह असंनी (असंझी) था, तब भी वह णामोंकी निर्मलना होकर आत्मशुद्धि होती है। असैनो जीव भवनद्विकमें देव उत्पन्न हो सकता है, भाग्यवशात् श्री १००८ महावीर स्वामीका समवसरण इसमें भी कोई बाधा नहीं पाती है। अतः लेखक उसी गजगृही नगरीमें आता है । समवसरणके "मित्र" जीकी शंका निर्मूल सिद्ध होजाती है।