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________________ राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल किरण २ ] अपना नाम भी श्रधा ही उल्लेखित किया है। जान पड़ता है कविवर जहां दूसरोंका परिचय देने में उदार थे वहां अपना परिचय देने में सदा ही कृपण रहे हैं, और यह सब उनकी अपने विषय में उदासीनवृत्ति एवं ऊँची भावनाका द्योतक है-भले ही इसके द्वारा इतिहासज्ञोंके प्रति कुछ अन्याय होता हो । हाँ. श्री मोहनलाल दलीचंदजी देशांई, एडवोकेट बर्डद्वारा लिखे गये उक्त इतिहास प्रबंथ (टि० ४८८ ) से एक बात यह जाननको जरूर मिलती है कि पद्मसुन्दर नामके किसी दिगम्बर भट्टारकने संवत् १६१५ ( शकलाभृत्तर्कभू) में " रायमल्लाभ्युदय " ( पी० ३, २५५) नामका एक कव्य ग्रंथ लिखा है, जिसमें ऋषभादि २४ तीथे करोंका चरित्र है और उसे 'गयमल' नामक सुचरित्र श्रावकके नामांकित किया है। संभव है इस प्रथपरसे राजमल्लका कोई विशेष परिचय उपलब्ध हो जाय । अतः इस प्रथको अली तरह देखने की खाम तरूरत है। -- उक्त सातों संस्कृत पद्योंके अनन्तर प्रस्तावित छंदोग्रंथका प्रारम्भ निम्न गाथास होता है। दो संजुत्तवरो बिंदु यालियो (?) वि चरणंते । मगुरू चंकदुमते रचणेो लहु होइ सुद्ध एकश्रलो ||७ (८) इसमें गुरु श्रौर लघु अक्षरोंका स्वरूप बतलाते हुए लम्बा है - जो दीर्घ है, जिसके परभाग में संयुक्त वर्ण है, जो बिन्दु (अनुस्वार - विसर्ग) से युक्त है, पादान्त है वह गुरु है, द्विमात्रिक है और उसका रूप वक्र (S) है । जो एकमात्रक है वह लघु होता है और उसका रूप शुद्ध - वक्रता से रहित सरल ( 1 ) - है । इसी तरह आगे छदः शास्त्र के नियमों, उपनियमों तथा नियमों के अपवादों श्रादिका वर्णन ६४ वें पद्य तक चला गया है, जिसमें अनेक प्रकार से गणों के भेद, उनका स्वरूप तथा फल, परामात्रिकादिका स्वरूप और प्रारादिकका कथन भी शामिल है। इस सब वर्णनमें अनेक स्थलों पर दूसरोंके संस्कृत- प्राकृत वाक्योंका भी “ अन्यं यथा " "अर जहा " जैसे शब्दों के साथ उद्धृत किया है, और कहीं बिना ऐसे शब्दां भी । कहीं कहीं किसी आचार्यके मतका स्पष्ट : नामोल्लंग्ध भी किया गया है, जैसे "..... पयासिओ पिंगलायरहिं | २० || १३७ 66 ग्रह चउमलहणामं फणिराम्रो पड्गणं भाई...२८” (" "वहु कहइ कुरु पिंगलयागः ४६।” मोलह पर जो जाग्रह थाइराइभणियाइं । सो छंदत्यकुसलो सम्वकणं च होइ महणीओ ||४३|| चाद्या ज्ञेयेति मात्राणां पताका पठिता बुधैः । श्री पूज्यपादपादाभिता हि (डी) ह विवेकिभिः || इससे मालूम होता है कि कविराजमल्लकं सामने अनेक प्राचीन छंदःशास्त्र मौजूद थे - श्री पूज्यपादाचार्य का ग़लबन वह छंदः शास्त्र भी था जिसे श्रवणबेल्गाल के शिलालेख नं० ४० में उनकी सूक्ष्मबुद्धि (रचनाचातुर्य) को ख्यापित करने वाला लिखा है और उन्होंने उनका दोहन एवं आलोडन करके अपना यह ग्रंथ बनाया है। और इसलिए यह प्रन्थ अपने विषय में बहुत प्रामाणिक जान पड़ता है। प्रन्थके अंतिम इस ग्रन्थका दूसरा नाम ' छंदोविद्या ' दिया है और इसे राजाओं की हृदयगंगा, गंभीरान्तः मौहित्या, जैनसंघाधीश- भाग्हमल-सन्मानिता, ब्रह्मश्री को विजय करनेवाले बड़े बड़े द्विजराजांके नित्य दिये हुए सैंकड़ों श्राशीर्वादों से परिपूरण- लग्या है। साथ ही, विद्वानोसे यह निवेदन किया है कि वे इस 'छंदोविया' प्रन्थकां अपने सदनुग्रहका पात्र बनाएँ। वह पद इस प्रकार है— " क्षोणीभाजां सुरमरदिं भो गंभीरान्तः सौहित्यां जैनानां किल संघाधीशैभरह मल्हौः कृमसम्मानां । ब्रह्मश्रीविजई (य) द्विजराज्ञां नित्यं दत्ताशीः शतपूण्या विद्वांसः सदनुग्रहपात्रां कुर्वस्वेमां इंदोविद्यां ॥ इससे मालूम होता है कि यह प्रन्थ उस समय अनेक राजाओं तथा बड़े बड़े ब्राह्मण विद्वनों का भी बहुत पसंद आया है, और इसलिये अब इसका शीघ्र ही उद्धार होना चाहिये अगले लेख में इस प्रथमें वर्णित छंदांके कुछ नमूनं, गजाभागमल आदिके कुछ ऐतिहासिक परिचय महित, दिये जायेंगे और उनमें कितनी ही पुरानी बातें प्रकाशमे आएँगी । वीरमेवामंदिर, र, फाल्गुन शुक्ल ११ मं० १९९७
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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