SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ३] प्रांतृत्व २१३ जो प्रतिद्वन्दी वनवीर्य पर चढ़ाई करनेके लिए की नये-नये ढंग, नये-नये तरीकेसे अत्याचार करते रहने गई थीं! पर भी, मनमें-मनकं एक भीतरे कोनमें-सदा __ महाराजकं ज़रा दुःखित हुए हृदयका दूसरी डरता रहता था ! शायद वह स्वयं भी न जानता हो, ओर मुखातिब होने का मौका मिला। शत्रुकं पगम्त कि वह डर किस ढंगका है ? और क्यों है ? करनेकी योजनाने उनमें एक परिवर्तन ला दिया- लकिन आज उसने महसूम किया कि वह पूर्ण नस-नसमें वीरत्व प्रवाहित हो उठा !............ आजाद है ! जैसे छाती परसे कोई पत्थर उठा लिया और ? गया हो! जिसे दूरसं देखने भर से खूनमें उबाल नीसरे दिन ही महागज अरविन्द, वकवीर्यकी आजाता था वह मरुभूति आज उससे बहुत दूर है ! आंखें उसे नहीं देख पातीं, हाथ छू नहीं पाते; पर, आजादीको गुलामीम बदलने के लिए रवाना होगए ! दिल फिर भी उस कोसता है-'काश ! युद्धमें वह साथमे प्रधान-सचिव मरुभूति भी गए ! यह कहने मर सके !' की नहीं, बल्कि ममझनकी बात है ! राजा और मदास, शायद संमार है तभीस-आवश्यकता मंत्री प्रायः दो अभिन्न शक्तियोंके रूपमें कहे जाते हैं-इमलिए! आविष्कारकी जननी रही है, आज भी है, और रहेगी भी। ___ मरगति नहीं है, इमसे कमठको थोड़ा सुख तो यह जानते हुए भी कि साहकार सोरहा है- है, लेकिन तकलीफ भी यह है कि वह पीड़ा किस दे, बिल्कुल अचेत ! लेकिन फिर भी चोरको निडरता किस पर अपनी दुष्टताका प्रहार करे ? मुमकिन है नहीं आती ! मन उसका धक-धक किया करता है। इसलिए कि कही पादत छूट न जाय, या उस तलब देखा तो यहांतक जाता है कि डाक भी-जी लग रही हो, श्रादत सता रही हो। वह जन्मजात हरबे-हथियारसे लैस होते हैं, और आते ही मकान- दुष्ट जा ठहग। मालिकको पकड़कर, बाँधकर अपनी विजयकी धाक हाँ, तो उस आवश्यकता थी. सिर्फ इस बातकी में उसे विवश कर देते हैं, वह उनकी गुरुताके आगे कि वह अपनी आदतको कायम रख सके । अनमनेमिर मुका देता है, एक शब्द भी नहीं बोल मकता, मनम छतकी मुड़गेरीपर पैर फैलाय कमठ ऐसे ही अपनी जीवन-रक्षाकी भीखक लिए तृण बन जाता विचारोंकी आंधीमें घबड़ा रहा था कि'....। है; और वे लुटेरे वन-सा दिल रखन तथा नारकीय सामनेकी छत पर एक सर्वागसुन्दरी ! नवकृत्य करनेवाले भी उससं डरते हैं ! यौवना · !! जैस किन्नरी हो!!! कमठ के मनमें शूलसा करीब-करीब ऐसी ही दशा थी उस अवगुण- चुभा, शायद पंचशरका नीर लगा-ठीक निशाने निधान कमठकी ! यह सही है कि ममभूतिने कभी पर। और तोरकं साथ ही यह बात भी दिलमे उतर उसे पलटकर जवाब नहीं दिया, हमेशा अपने पिता गई कि युवती दूसरी कोई नहीं, वसुन्धरी है !-मरुया इष्टदेवताकी तरह बड़ा माना, लेकिन क्मठ नित्य भूतिकी स्त्री।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy