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________________ ५६४ अनेकान् है कि नाटके कुछ मुनि उन लोगोंकी प्रार्थना या श्राग्रह से सुदूर काठियावाड़ में भी पहुँच गये हो और वहीं स्थायी रूपसे रहने लगे हों। हरिषेणके बाद और कब तक काठियावाड़ में पुजाट संघ रहा, इसका अभी तक कोई पता नहीं चला है। जिनसेनने अपने ग्रन्थ की रचनाका समय शक संवत्में दिया है और हरिषेणने शक संवत्के सिवाय विक्रम संवत् भी साथ ही दे दिया है। पाठक जानते हैं कि उत्तरभारत, गुजरात, मालवा श्रादिमें त्रिक्रम संवत्का और दक्षिण में शक संवत्का चलन रहा है। जिनसेनको दक्षिणसे आये हुए एक दो पीड़ियाँ ही बीती थीं इसलिये उन्होंने अपने ग्रन्थ में पूर्व संस्कारवश श० सं० का ही उपयोग किया, परन्तु हरिषेणको काठियावाड़ में कई पीढ़ियाँ बीत गई थीं, इसलिए उन्होंने वहांकी पद्धति के अनुसार साथमें वि० सं० देना भी उचित समझा । नवराज - पसति बर्द्धमानपुरकी नाराज वसतिमें अर्थात् ननराजके चनबाये हुए या उसके नामसे उसके किसी वंशधरके बनवाये हुए जैनमन्दिर में हरिवंशपुराण लिखा गया था । यह नमराज नाम भी कर्नाटकवालोंके सम्बन्धका प्रभाव देता है और ये राष्ट्रकूट वंशके ही कोई राजपुरुष जान पड़ते हैं । इस नामको धारण करने वाले कुछ राष्ट्रकूट राजा हुए भी है।" राष्ट्रकूट राजानोंके घरू नाम कुछ और ही हुआ करते थे, जैसे कम, कन्नर, भ्रमण, बद्दिग आदि। यह नन नाम भी ऐसा ही जान पड़ता है। लाटसंघका इन दो ग्रन्थोंके सिवाय अभी तक और कहीं भी कोई उल्लेख नहीं मिला है; यहाँ तक कि जिस कर्नाटक प्रान्तका यह संघ था वहाँके भी किसी शिलालेख [ वर्ष ४ श्रादिमें नहीं और यह एक आश्चर्यकी बात है। ऐसा जान पड़ता है कि पुजाट ( कर्नाटक ) से बाहर जाने पर ही यह संघ पुत्रासंघ कहलाया होगा जिस तरह कि आजकल जब कोई एक स्थानको छोड़कर दूसरे स्थानमें जा रहता है, तब वह अपने पूर्व स्थान वाला कहलाने लगता है। श्राचार्य जिनसेनने हरिवंशके सिवाय और किसी ग्रन्थकी रचनाकी या नहीं, इसका कोई पता नहीं । आचार्य जिनसेनने अपने समीपवर्ती गिरनारकी सिंहवाहिनी या अम्बादेवीका उल्लेख किया है और उसे विघ्नों का नाश करने वाली शासन देवी बतलाया है । अर्थात् उस समय भी गिरनार पर श्रम्यादेवीका मन्दिर रहा होगा । १ देखो छयासठवें सर्गका ५२ वाँ पद्य । २ मुलताई (बेतूल सी०पी०) में राष्ट्रकूटोंकी जो दो प्रशस्तियाँ मिली हैं उनमें दुर्गराज, गोविन्दराज, स्वामिकराज और नमराज नामके चार राष्ट्रकूट राजाओंके नाम दिये हैं। सौन्दसिके राष्ट्रकूटोंकी दूसरी शाखाके भी एक राजाका नाम ना था । बुद्ध गयासे राष्ट्रकूटोंका एक लेख मिला उसमें भी पहले राजाका नाम नम है । दोस्तटिका नामक स्थानका कोई पता नहीं लग सका जहाँकी प्रजाने शान्तिनाथकं मन्दिरमें हरिवंशपुराणकी पूजा की थी। बहुत करके यह स्थान बढ़वाणके पास ही कहीं होगा । उस समय मुनि प्राय: जैनमन्दिरमें ही रहते होंगे । श्राचार्य जिनसेन ने अपना यह ग्रन्थ पार्श्वनाथके मन्दिरमें रहते हुए ही निर्माण किया था । पूर्ववर्ती प्राचार्योंका उल्लेख जिनसेनने । अपने पूर्व के नीचे लिखे ग्रन्थकर्तानों और विद्वानोंका उल्लेख किया है समन्तभद्र - जीवसिद्धि और युक्त्यनुशासनके कर्त्ता । सिद्धसेन सूक्तियोंके कर्त्ता । इन सूक्तियोंसे सिद्धसेनकी द्वात्रिंशतिकाओं का अभिप्राय जान पड़ता है । देवनन्दि - ऐन्द्र, चान्द्र, जैनेन्द्र श्रादि व्याकरणोंके पारगामी । बज्रसूरि - देवनन्दि या पूज्यपाद शिष्य वज्रनन्दि ही शायद वज्रसूरि हैं जिन्होंने देवसेनसूरिके कथनानुसार द्राविड़ संघकी स्थापना की थी। इनके विचारोंको गणधर देवोके समान प्रमाणभूत बतलाया है और उनके किसी ऐसे ग्रन्थ की ओर संकेत किया गया है जिसमें बन्ध और मोक्षका सहेतुक विवेचन है । महासेन - सुलोचना कथाके कर्त्ता । ३ ग्रहीतचक्राऽप्रतिचक्रदेवता तथोर्जयन्तालयसिंहवाहिनी । शिवाय यस्मिन्निह सन्निधीयते तत्र विघ्नाः प्रभवन्ति शासने ४४
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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