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________________ किरण २] राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल १३५ जाता है। कविवर राजमल्ल जैसे विद्वानकी लेखनी चित्रं महचदिह मानधनो परास्ते से लिखा होने के कारण वह कोरा कवित्व न होकर इंदोमयं नयति यत्कविराजमस्तः । कुछ महत्त्व रखता है, इससे विद्वानोंको दूसरे साधनों यहादयोपि निजसारमिह दति परस राजा भारमल्लके इतिहासकी और और बातों पुण्यादयोमयत्नोस्तव भारमल ॥६॥(७) को खोजने तथा इस प्रथ परसे उपलब्ध हुई बातों इनमें से प्रथम पद्य में प्रथमजिनेन्द्र (आदिनाथ) पर विशेष पकाश डालनेके लिये पात्माहन मिलेगा को नमस्कार किया गया है और उन्हें केवलकिरण और इस तरह राजा भाग्मल्लका एक अच्छा इति- दिनेश' बनलाते हुए लिखा है कि उनकी ज्ञानज्योति हास तय्यार हो सकेगा। साथ ही, इस ग्रंथकी दृमरी में यह जगत् आकाशमें एक नक्षत्रकी तरह भासमान पाचीन पतियाँ भी खोजी जायँगों । यह पति है।' अपनी लाटीसंहिनाके प्रथम पद्यमें भगवान अनेक स्थानों पर बहुत कुछ अशुद्ध जान पड़ती है। को नमस्कार करते हुए भी कविबग्ने यही भाव व्यक्त पकाशन-कार्यके लिये दृमरी पतियोंके ग्वोजे जानेकी किया है, जैमा कि उसके “ यच्चिति विश्वमशेषं खास जरूरत है । अस्तु । व्यदीपि नक्षत्रमकमिव नभमि" इस उत्तगर्धसे प्रकट ___ कविवग्ने, अपनी इस ग्चनाका सम्बंध व्यक्त है। साथ ही, उसके भगवद्विशेषण में 'ज्ञानानन्दात्मान' करते हुए, मंगलाचरणादिके रूपमें जो मात संस्कृत लिखकर ज्ञानके साथ श्रानंदको भी जोड़ा है । पद्य शुरूमें दिये हैं व इस प्रकार हैं : लाटीसंहिनाके प्रथम पद्यमें जो साहित्यिक संशोधन केवलकिरणदिनेशं प्रथमजिनेशं दिवानिशं वंदे। और परिमार्जन दृष्टिगोचर होता है उससे ऐसी ध्वनि यज्योतिषि जगदेतदग्योम्नि नक्षत्रमेकमिव भाति ॥१॥ निकलती हुई जान पड़ती है कि कविकी यह कृति जिन इव मान्या वाणी जिनवरवृषभस्य या पुनः फणिनः। लाटीमंहितास कुछ पूर्ववर्तिनी होनी चाहिये । वर्णादिबोधवारिधि-तराय पोतायते तरा जगतः ॥ दुसरे पद्यमें जिनवर वृषम ( आदिनाथ ) की पासीनागपुरीयपक्षतिरतः साक्षात्तपागच्छमान् वाणी का जिनदेवकं समान ही मान्य बतलाया है, और सूरिः श्रीप्रभुचंद्रकीर्तिरवनौ मूर्धाभिषिको गणी। फणीकी वाणीका अक्षगदिबोधसमुद्रम पार उतरने के तत्पट्ट विह मानसूरिरभवत्सस्यापि पधुना लिये जहाजके समान निर्दिष्ट किया है। संसम्राडिव राजते सुरगुरुः श्रीहर्ष (प) कीर्तिर्महान् ॥ तीसरं पद्यमें यह निर्देश किया है कि आजकल श्रीमच्छीमालकुले समुदयदुदयाद्रिदेवद[ ]स्य । हर्षकीर्ति नामकं माधु सम्राटकी तरह गजते हैं, जो रविरिव रॉक्याणकृते ज्यदीपि भूपालभारमल्लाहः ॥३॥(४) कि मानसूरिके पट्टशिष्य और उन श्रीचंद्र कीर्तिक पूपट्टभूपतिरितिसुविशेषणमिदं प्रसिद्ध हि भारमन्नस्य । शिष्य हैं जो कि नागपुरीय पक्ष (गन्छ ) के साक्षात तन्कि संघाधिपतिर्वणिजामिनि वक्षमाणेपि ॥ ४॥ (५) अन्येच : कुतुकोस्वणानि पठता छंदांसि भूयांसि भो तपागकछी साधु थे। सूनोः श्रीसुरसंज्ञकस्य पुरतः श्रीमालचूडामणेः । चौथ-पाँचवें पद्योंमें बनलाया है कि-श्रीमालईपत्तस्य मनीषितं स्मितमखारसंलक्ष्य परमान्मया * लाटीसंहिताका निर्माणकाल आश्विन शुक्ला दशमी दिग्मात्रादपि नामपिगनमिदं पायादुपक्रम्यते ॥५॥ (५) वि.सं. १६४१ है।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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