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अनेकान्त
[ वर्ष ४
१०४४ में अपना यह प्रन्थ समाप्त किया था। राष्ट्रकूटोंकी राजधानी पहले मयूरखंडी (नासिक) इस ग्रन्थके प्रारंभमें अपभ्रंशकं चतुर्मुख, स्वयंभू में थी, पीछे अमोघ वर्ष ( प्रथम ) ने श० सं० ७३७
और पुष्पदन्त इन तीन महाकवियोंका स्मरण किया में उसे मान्यखेटमें प्रतिष्ठित की । पुष्पदन्तने कृष्णगया है । इससे सिद्ध है कि वि० सं० १०४४ या राजकी राजधानी भी मान्यखेट ही बतलाई है और श०सं० ९०९ से पहले पुष्पदन्त एक महाकविक रूप कण्हराय को वहां का गजा बतलाया है जो कि में प्रसिद्ध होचुके थे । अर्थात् पुष्पदन्तका समय ७५९ कृष्णराजका प्राकृतरूप है
और ५०९ के बीच होना चाहिए । न ता उनका सिरिकण्हगयकरयलाणहिय मासिजलवाहिणि दुग्गयरि समय श० सं० ७५९ के पहले जा सकता है और न धवलहरसिहाग्यमेह उलि पविल मण्णखेडणयरि ॥ ९०९ के बाद।
-नागकुमारचरित अब यह देखना चाहिए कि वे श० सं०७५९ अर्थात् कण्हगयकी हाथी तलवाररूपी जलवाहिनी (वि० सं०८५४ ) से कितने बाद हुए है। से जो दुर्गम है और जिसके धवलगृहोंके शिखर मेघा
कविन अपने प्रन्थोंमें तुडिगु', शुभतुंग, वलीस टकराते हैं, ऐसी बहुत बड़ी मान्यखेट नगरी है। वल्लभनरेन्द्र " और कराहरायका उल्लेख किया है
राष्ट्रकूटवंशम कृष्ण नामके तीन राजा हुए हैं, और इन सब नामों पर प्रन्योंकी प्रतियों और टिप्प
एक तो वे जिनकी उपाधि शुभतुंग थी । परन्तु इनके णप्रन्थोमें 'कृष्णराजः' टिप्पणी दा है। इसका अर्थ
समय तक मान्यखेट गजधानी ही नहीं थी, इसलिए यह हुआ कि ये सभी नाम एक ही राजाके हैं ।
पुष्पदन्तका मतलब इनसे नहीं हो सकता। वल्लभराय या वल्लभनरेन्द्र राष्ट्रकूट राजाओंकी पदवी
द्वितीय कृष्ण अमोघवर्ष ( प्रथम ) के उत्तगधिथी, इसलिए यह भी मालूम होगया कि कृष्णराय
काग थे, जिनके समयमें गुणभद्राचार्यने श० सं० राष्ट्रकूटवंशकं गजा थे।
८२० में उत्तरपुगणकी समाप्ति की थी। और जिन्होंने सिरिचित्तउहचएवि अचलउरेहो,ग उणियकज्जे जिणहरपउरहो। श०सं०८३३ तक राज्य किया है। परन्तु इनके साथ तहि छंदालंकारपसाहिद, धम्मपरिक्ख एह ते साहिय । उन सब बातोंका मेल नहीं खाता जिनका पुष्पदन्तने १ विक्कमणिव परियत्तह कालए, ववगए वरिस सहसच उतालए। उल्लेख किया है। इसलिए कृष्ण तृतीयको ही हम २ चउमुह कविरयणे सयंमुवि, पुप्फयंत अण्णाणणिसंभुवि ।
उनका समकालीन मान सकते हैं। क्योंकितिण्णाव जोग्गजेणतं सासइ, उमामहे थिय तामसरा जो सयंमु सोहेउ पहागाउ, प्रहकह लोयालोय वि याणउ। १-जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है पुष्फयंतु णवि माणुसु बुचइ, जे सरसइए कयावि ण मुच्चइ। चोलराजाका सिर कृष्णराजने कटवाया, इसके ३ भुवणेक्करामु गयाहिराउ, जहि अच्छा 'तुडिगु' महाणुभाउ। प्रमाण इतिहासमें मिलते हैं और चोल देशको जीत
भ० पु० १-३-३ कर कृष्ण तृतीयने अपने अधिकारमें कर लिया था। ४ सुहनुंगदेवकमकमलमसलु, णीसेसकलाविण्णाण कुसलु। २-यह चोलनरेश परान्तक ही मालूम होता है
म.पु. १-५-२ ५ वल्लभणरिंदघर महत्तरासु ।
६ उव्वद्धजूड भूभंगभीसु, तोडेप्पिणु चोलहो तणउ सीसु ।