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________________ महाकवि पुष्पदन्त [ लेखक-श्री पं० नाथूराम प्रेमी ] [गत किरणसे आगे] ८-समय-विचार टीकाको श० सं० ७५९ में राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्ष महापुराणकी उत्थानिकामें कविने जिन सब (प्रथम ) के समय में समाप्त की थी । अतएव यह ग्रंथों और प्रन्थकर्ताओं का उल्लेख किया है, उनमें निश्चित है कि पुष्पदन्त रक्त संवत्के बाद ही किसी सबसे पिछले प्रन्थ धवल और जयधवल है । समय हुए हैं, पहले नहीं । पाठक जानते हैं कि नीरसन स्वामी के शिष्य जिनसेन रुद्रटका समय श्रीयुत् काणे और दे के अनुसार ने अपने गुरु की अधूरी छोड़ी हुई टीका-जयधवला ई० सन् ८००-८५० के अर्थात् श० सं० ७२२ और १ अकलंक, कपिल (सांख्यकार), कणचर या कणार (वैशे- ७७२ के बीच है। इसमें भी लगभग उपयुक परिषिकदर्शनकर्ता), द्विज (वेदगठक), संगत (बद्ध), परंदर णाम ही निकलता है। (चार्वाक), दन्तिल, विशाख (संगीतशास्त्रकर्ता), भरत अभी हाल ही डा० ए० एन० उपाध्यको अपभ्रंश (नाट्यशास्त्रकार), पतंजलि,भारवि,व्याम,कोहल (कुष्माण्ड भापाका 'धम्मपरिक्खा" नामका प्रथ मिला है जिस कवि), चतुर्मुख, स्वयंभु, श्रीहर्षद्रोण, बाण, धवल-जयधवल- के कर्ता बध (पंडिन) हरिषेण हैं, जो धक्कड़वंशीय सिद्धान्त, रुद्रट, और यशश्चिन्द, इतनोका उल्लेख किया गया है । इनमें से अकलंक, चतुर्मुख और स्वयंभु जैन है । 1 गोवर्द्धनके पुत्र और मिद्धमनके शिष्य थे । वे मंत्राद अकलंक जयधवलाकार जिनसेनसे पहले हुए है । चतुर्मुख दशकं चित्तौड़के रहनेवाले थे और वसं छोड़कर कार्य और स्वयंभूका ठीक समय अभी तक निश्चित नहीं हुआ है वश अचलपुर चले गये थे। वहांपर उन्होंने वि०सं० परन्तु स्वयंभू अपने पउमचरियमें आचार्य (रविषेणका प्राचार्य अमितगतिकी संस्कृत 'धर्मपरीक्षा' इसके बाद उल्लेख करते हैं जिन्होंने वि० सं० ७३३ में पद्मपगण बनी है। हरिषेणकी धर्मपरीक्षाके भी पहले जयराम नामक लिखा था)। इससे उनसे पीछेके हैं। उन्होंने चतुमुखका कविका गाथावद्ध कोई अन्य था जिमके श्रापारसे उक्त भी स्मरण किया है । स्वयंभू अपभ्रंश भाषाके ही महाकवि धम्मपरिस्वा लिम्वी गई हैथे। इनके पउमचरिउ (पद्मचरित) और हरिवंशपुराण जा जयरामें श्रासि वियय गाहपबंधे। उपलब्ध हैं। उनका एक छन्दशास्त्र भी है, जिसके पहले साहमि धम्मपरिक्ख सा पद्धड़िया बंधे । तीन प्रकरण प्रो. वेलणकरने JBBRAS 1935 PP संस्कृत धर्मपरीक्षा इन दोमेंसे किसी एकका अनुवाद 18-58 में प्रकाशित किये है। 'पंचमिचरियं' नामका मेला नाशि ग्रन्थ भी उनका बनाया हुआ है, जो अभी तक कहीं प्राम इह मेवाडदेसे जणसंकले. सिरि उजपुरणिगय धक्कडकुले।" नहीं हया है। स्वयंभू यापनीयसंघके अनुयायी थे, ऐसा गोवण गामें उपयएणो, जो सम्मत्तरयणमपुराणो। महापुराण-टिप्पणसे मालूम होता है। तहो गोबद्धणामुपियगुणवइ, जा जिणवर पयणियवि पणवह । २ ण उबुझिउ यमसद्दधाम, मिलुन धवलु जयधवलुणामु। ताए जाणिउहरिसेणणाममुश्रो, जो संजाउ विवुहकाविस्सुश्री
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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