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________________ ६४ भनेकान्त [वर्ष ४ स्वरूप) का समलंकृत प्रतीक है । शिव अमरत्वका दिया गया है । अंधेरी गुफायें वहाँ नहीं हैं । ही संकेत है । जो अमर होना चाहे वह संसार-विष पर्वतके छोटेसे दरवाजे के भीतर आलीशान महल (रागद्वेषादि) को पीकर हम कर डाले-उसको नाम और मंदिर बने हुये हैं। उनमें शिल्प और चित्रणनिःशेष करदे-वही शिव है ! परन्तु उन भोले कलाके असाधारण नमूने देखते ही बनते हैं । आश्चर्य प्रामीणोंको इस रहस्यका क्या पता ? वह तो कुल- है कि एक खंभेपर हजारों-लाखों मनोवाला वह परंपरासे उस मूढ़तामें बहे प्रारहे थे। 'धर्मप्रभावना पाषाणमयी पर्वत खड़ा हुआ है ! उसकी प्रशंसा ऐसे मेलोंमें सद्ज्ञानका प्रचार करनेमें ही हो सकती शब्दोंमें करना अन्याय है-इतना ही बस है कि है। यह सत्य वह मर्मज्ञजनोंको बता रही थी। मनुष्यके लिए संभव हो तो उसको अवश्य देखना हमारी लॉग उस भीड़ को चीरती हुई चली । ग्रामीणों चाहिए । कलाका वह भागार है। इस कैलाशभवन की आकांक्षाओं और अभिलाषाओंको पूर्ण करनेके 'शिवमंदिर' को राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथमने लियं तरह-तरहकी साधारण दुकानें भी लगी हुई बनवाया था। थीं। ज्यों-त्यों करके हमारी लॉरी मेलेको पार कर इस मंदिरको देग्वनेके साथ ही हमको इलोराकी गई। दोनों ओर हरियाली और एथरीले भरकं नज़र जैन गुफाओं को देखनेकी उत्कण्ठा हुई। सब लोग पड़ रहे थे । वह पहाड़ी नदी भी इन्हींमें घूम-फिर लॉरीमें बैठकर वहाँ से दो मीलके लगभग शायद कर आँखमिचौनी खेल रही थी। हमने उस पार किया उत्तर की ओर चले और वहाँ से हनुमानगुफा आदिको और पहाड़ीपर चढ़न लगे । थोड़ा चलकर लॉग देखते हुये जैनगुफाओंके पास पहुँचे। नं० ३० से रुकी-हम लोग नीचे उतरे । देखा सामनं उत्तुंग नं० ३४ तककी गुफायें जैनियों की हैं। हमने नं० २६ B पर्वत फैला हुआ है । उसको देखकर हृदयको ठेस-सी के गुफामंदिरको भी देखा । उसमें भीतर ऐसा कोई लगती है । सुदृढ़-अटल और गंभीर योद्धासा वह चिन्ह नहीं मिला जिससे उसे किसी सम्प्रदाय विशेषदीखता है । कलामय सरसता उसमें कहाँ ? यह भ्रम का अनुमान करते; परंतु उसके बाहरी वरांडामें जैनहोता है। दिन काफी चढ़ गया था-बच्चे भी साथ मूर्तियाँ ही अवशेषरूपमें रक्खी दीग्वतीं हैं । इससे में थे । गरमी अपना मजा दिखला रही थी । चाहा हमारा तो यह अनुमान है कि यह गुफा भी जैनियोंकी कि भोजन नहीं तो जलपान ही कर लिया जाय। है। ये गुफायें भी बहुत बड़ी हैं और इनमें मनोज्ञ परंतु 'सत्य-शिव-सुन्दरम्' की चाह-दाहने शारी- दिग० जैन प्रतिमायें बनी हुई हैं । इनके तोरणद्वाररिकदाहको भुला दिया। सब लोग इलारा देखनेके स्थंभ-महराब-छतें बड़ी ही सुंदर कारीगरी की लिये बढ़े। कैलाशमंदिरके द्वारपर ही पर्वतस्रोतसे बनी हुई हैं । हजारों आदमियों के बैठनेका स्थान है। भरा हुआ जल छोटेसे कुण्डमें जमा था-उसने राष्ट्रकूट-राज्यकालमें जैनधर्मका प्राबल्य था । अमोघशीतलता दी। क्षेत्रका प्रभाव ही मानों मूर्तिमान वर्ष श्रादि कई राष्ट्रकूटनरेश जैनधर्मानुयायी थे। होकर आगे आ खड़ा हुआ। भीतर घुसे और देखा उनके सामन्त आदि भी जैन थे। वे जैन गुरुओंकी दिव्यलोकमें आगये । पर्वत काटकर पोला कर वंदना-भक्ति करते थे। इन गुफा-मंदिरोंको देखकर
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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