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________________ 'अनेकान्त' पर लोकमत २८ न्यायाचार्य पं० दर गिलाल जैन कांठिया, ऋषभब्रह्मचर्याश्रम मथुरा "कान्नको मैं गौर पूर्वक देखा करता हूँ । श्रद्ध ेय पं० जुगलकिशोरजीके विद्वसापूर्ण एवं खोजपूर्ण लेखा, निबन्धों, प्रकरणों, व्याख्याओं को मैं कई वर्ष से सुरुचिपूर्वक पढ़ता का रहा हूं। उनकी भावभंगी तथा शब्द-विन्यास साधारया व्यक्ति के लिये भी मुग्ध कर देने वाला होता है। उनके लेखों को पढ़ लेनेपर भी छोड़ने को जी नहीं चाहता है। 'मेरीभावना' तथा 'समन्तभद्र' मे तो उन्हें यशस्वी एवं अमर बना दिया है। पंडितजीकी ही यह विचित्र सूम है कि अनेकान्सके मुखपृष्ट पर 'अमीमीति' का गोपिका के समन्वयका सुन्दर चित्र खींचा है। पंडितजी की ऐसी साहित्य-सेवाधों में आकर्षित हो मैने गतवर्ष अपने "जैनसाहित्य की खोज” लेखमें जैममित्रके २३ अंकमें पंडितजी के प्रति निम्न उद्गार प्रकट किए थे: "पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार जैम्मी विभूति जैनसंसारको भी प्राप्त हैं । इन्होंने अपने जीवन भर जैनसाहित्यकी अपूर्व सेवा की है और विश्राम की में भी कठोर परिश्रम करते जारहे हैं । इनके सप्रयत्न से ही प्रकाशित प्राचार्य कृतियोंके दर्शनोंका सौभाग्य प्राप्त हुआ।" जिनेन्द्रले प्रार्थना है पंडितजी दीर्घायु होकर जैनसाहित्यकी अधिकाधिक सेवा करें । आपका लेख "तस्वार्थसूत्रके बीजों की खोज” शीर्षक भी नग्य एवं महत्वपूर्ण हैं इसमें अभी शब्द साम्यकं खोज की और जरूरत है। जहां तक हो तस्वार्थसूत्र के सभी बीज शब्दों में ही मिलें तो प्रत्युसम चार प्रयत्न शील होंगे ।" | आशा है इस विषय में भी २९ ब्र० शीतलप्रसाद, श्रजिताश्रम, लखनऊ "यह पत्र बिना मतभेदके सर्व जैन विद्वानोंके विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित करता है। इसमें अब विद्वानोंके व सर्वसाधारण के पहने योग्य लेख होते हैं, जिनसे धार्मिक भाव और सामाजिक उत्थान दोनोंकी तरफ़ पाटकों का ध्यान जा सकता है । यह अपने ढंगका निराला ही पत्र है । सम्पादन बड़ी योग्यतासे किया जाता है। सर्व जैनोंको आर्थिक मदद देनी चाहिये. जिसमे कि यह बराबर जारी रहकर श्री महावीर भगवानका उपदेश जनताको पहुँ खाता रहे। हम इसकी रकति चाहते हैं । आध्यामिक लेख भी रहने चाहियें ।" ३० श्री हजारीलाल बांठिया, बीकानेर 46 'मईका अंक पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। 'ग्रीष्म-परिषह-जय' रंगीन चित्र इस अंककी शोभा दूनी होगई है। जैसा इसका नाम है 'अनेकान्स' वैसे ही इसमें अच्छे अच्छे लेख रहते हैं। मुखपृष्ठ तो इतना आकर्षित है कि कहते ही नहीं बनता है। पत्रक बिचारधारा स्फूर्ति प्रदान करनेवाली है। सचमुच मपत्रों में सर्वोच्च कोटिका है। यदि किमीको अन समाज की सच्ची सेवा करनी हो तो इस पत्रको अवश्य अपमावे। जैन जाति इसे तन-मन-धन् मद दे, जिससे पत्र दीर्घायु होकर अपने उद्देश्य और नीतिमें सफल हो। मैं पत्रकी हृदयसे उसति चाहता हूँ ।" ३१ संपादक 'जैन मित्र', सूरत " ''इसके मुख्य पृष्ठपर जैनी नीतिका द्योतक सप्तभंगीका रंगीन चित्र बहुत ही कमोडर है। इसमें " एकेमाsurat" श्लोक को मूर्तस्वरूप देकर मुख्तार सा० ने अपनी उच्च कल्पना शक्तिका परिचय दिया है। इस अङ्ग में कुल ३३ लेख कविता घ्रादि है। २-३ सामान्य लेखोंको छोड़कर शेष सभी अध्ययन और मनन करने योग्य हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीका "सस्वार्थ सूत्रके बीजकी लोज” शीर्षक लेख इस अंकका सबसे महत्वपूर्ण लेख है । यह २१ पृष्ठोंमें पूर्ण हुआ है। शास्त्रीजीने यह लेख बहुत ही परिश्रम, खोज और समय के बाद जिला मालूम होता है। प्रारंभ में आपने अनेक युक्तियों और प्रमाणोंसे यह सिद्ध किया है कि तत्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वामी दिगम्बराचार्य थे, म कि श्वेताम्बराचार्य | और छापने पं० सुखलालजीकी उस मान्यताका भवी भांति खण्डन कर दिया है जिससे उम्मे तस्यार्थसूत्रकी अपनी हिन्दी टीकामें उमास्वामीको श्वेताम्बर सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है........| 1 1 अनेकान्त एक ऐसा पत्र है जिस पर जैन समाज गौरव कर सकती है । जैममित्रके पाटकोंसे हमारा अनुरोध है कि वे इसके ग्राहक बन अब ।"
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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