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अनेकान्त
[वर्ष ४
मुशकिल है। कोई एक उपाय ऐमा निश्चित नहीं परन्तु ऐमा होना कितना अनिश्चित है, कितना जिससे इसकी सिद्धि होसके, कोई एक समय ऐसा कठिन है, यह बात अध्यात्मवादियोंके बेबसी-सूचक निश्चित नहीं जब इसकी प्राप्ति हो मके, यह न केवल वाक्यों ने प्रगट है, बहुत कुछ बाह्य और श्राभ्यन्तर प्रवचन सुननेसे प्राप्य है, न बहुत शास्त्र पढ़नेसे, यह उपायों, मार्गों, योगों के बतलाने पर भी वह हार कर न पूजापाठसे प्राप्य है न नाम जपन करनेसे, यह यही कहते हैं कि "जिम आत्मा स्वयं वर लेता है-- दीर्घ वेदनानुभूनि, गाढ चितवन, स्वानुभव म्वयं स्वीकार कर लेता है, उसे ही श्रात्माका लाभ अभ्यासके आश्रित है। यह परम्परागत सत-संगति, हाता है । । जिमपर परमेष्ठिकी कृपा होजाती है सत उपदेश, सत् दर्शनकं आश्रित है । ऐसा होते होते उम ही उसकी सिद्धि होती है ।" जिसे दैवयोगमे जिसकी मोहमाया शान्त हो गई है, परिणामोंमें काललब्धि हासिल होगई है, जिमकं भवभ्रमणका निर्मलता, उज्ज्वलता आ गई है, जिमकी दृष्टि बाहिर अंत निकट आगया है, उसे ही श्रात्माका दर्शन हो सं उचटकर भीतरकी ओर पड़ने लग गई है, अपने प्राता है । श्राजीवक पंथके संस्थापक मम्करीगोशाल
आपमें ममाने लग गई है, उसे ही इसका भान हो ने तो इम अनिश्चितिक पहलूपर इतना जोर दिया है प्राता है।
कि उमने जीवन-मिद्धिको नियति पर ही छोड़ दिया
है। उसके मतानुमार श्रात्ममिद्धिके लिये पुरुषार्थ *(अ) उत्तराध्ययनसूत्र २८. १६. (श्रा) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र १. २: १.३.
करना बिल्कुल व्यर्थ है, आत्मा पुरुषार्थमे प्राप्त नहीं "तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" १. २.
होता, जब नियत समय प्राता है, तब आत्मा म्वयं "तन्निसर्गादधिगमाद्वा" १.३.
प्राप्त होजाता है । () क्षायोपशमिकविशुद्धिः देशना प्रायोग्यकरणलब्धी च । १ "ययेवैष वृणते तेन लभ्यस्तस्यैव श्रात्मा विवृणुते तनु चतस्रोऽपि सामान्या: करणं पुनर्भवति सम्यक्त्वे ॥ स्वाम् ||-कठ० उप० २.२३% मुण्डक० उप० ३.२.३.
गोमटसार-जीवकाण्ड ॥ ६५० ॥ संस्कृतछाया, २ श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः ॥ (६) बाह्यनिमितमत्रास्ति केषाञ्चिद्विम्बदर्शनम् ।
-स्वामि विद्यानन्द-श्राप्तपरीक्षा ॥ २॥ अर्हतामितरेषा तु जिनमहिमा (प्र) दर्शनम् ॥ २३ ॥ ३ दैवात्कालादिसंलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे । धर्मश्रवणमेकेषां यद्वा देवद्धिदर्शनम् ।
भव्यभावविपाकाद्वा जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥ जातिस्मरणमेकेषां बेदनाभिभवस्तथा ॥२४॥
-लाटी संहिता ३-३३. लाटी संहिता-अध्याय ३०
४ उवासगदसाश्रो- Edited by Dr. P. L.
Vaidya, Poona 1930-P.238-244.
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