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________________ अनेकान्त [वर्ष ४ सुखलालका दीक्षित नाम सुखलाभ, राजमलका है। इसी प्रकार इनके शिष्य जिनचन्द्रसूरिजीस राजमुन्दर, रत्नसुन्दर आदि । चतुर्थ पट्ट पर यही नाम रखना रूढ़ होगया है। तपागच्छ : २ गुर्वावलीसे स्पष्ट है कि उस समय सामान्य लक्ष्मीसागरसूरि (सं० १५०-१७) के मनियोंके आचार्य पदके समय इसी प्रकार 'उपाध्याय', 'वाचनामान्त पद-"तिलक, विवेक, रुचि, राज, सहज, नाचार्य' पदों एवं साध्वियोंके 'महत्तग' पद प्रदानके भूषण, कल्याण, श्रुत, शीति, प्रीति, मूर्ति, प्रमोद, र समय भी कभी कभी नाम परिवर्तन-नवीन नामकरण होता था। आनंद, नन्दि, साधु, रत्न, मंडण, नंदन, वर्द्धन, ज्ञान, दर्शन, प्रभ, लाभ, धर्म, सोम, संयम, हेम, क्षेम, ३ तपागच्छादिमें गुरु-शिष्यका नामान्त पद एक प्रिय, उदय, माणिक्य, सत्य, जय, विजय, सुन्दर, ही देखा जाता है, पर खरतरगच्छमें यह परिपाटी सार, धोर, वीर, चारित्र, चंद्र, भद्र, समुद्र, शेखर, नहीं है, गुरुका जो नामान्त पद होगा वही पद शिष्य के लिये नहीं रखे जानेकी खरतरगच्छमें एक विशेष सागर, सूर, मंगल, शील, कुशल, विमल, कमल, परिपाटी है + । इससे जिस मुनिने अपने ग्रंथादिमें विशाल, देव, शिव, यश, कलश, हर्ष, हंस, ५७ गच्छका उल्लेख नहीं किया है पर यदि उमक गुरुका इत्यादि पदान्ताः सहस्रशः। नामान्त पद उससे भिन्न है तो उमकं ग्वतरगच्छीय (सामचाग्त्रि कृत "गुरुगुण" रत्नाकर काव्य होनकी विशेष सम्भावना की जा सकती है। द्विनीयसर्ग)। ४माध्वियोंक नाम न्त पदोंके लिये नं०३ वाली हीविजयसूरिजीके समुदायकी १८ शाखायें:- ___ बात न होकर गुरुणी शिष्यगीका नामान्त पद एक १ विजय, २ विमल, ३ सागर, ४ चंद्र, ५ हर्ष, ही देखा गया है। ६ सौभाग्य, ७ सुन्दर, ८ रत्न, ९ धर्म, १० हंस, ५ सब मुनियोंकी दीक्षा पट्टधर आचार्यकं हाथसे ११ आनंद, १२ वर्द्धन, १३, साम, १४ रुचि, १५ सार, ही होती थी। क्वचित विशेष कारणम वे अन्य १६ गज, १७ कुशल, १८ उदय । (ऐ० मज्झायमाला आचार्य महागज, उपाध्यायों आदिको आज्ञा देते थे पृ०१०) तब अन्य भी दीक्षा देसकते थे। नवदीक्षिन मुनियोंका ___ नामान्तपद-सम्बन्धी खरतरगच्छकी कई विशेष नामकरण पट्टधर सूरि स्थापित नंदीके अनुसार ही परिपाटियें: होता था । सबसे अधिक नंदीकी स्थापना युग प्रधान नंदियोंके सम्बन्धमें खरतरगच्छमें कई विशेष जिनचन्द्रसूरिजी ने की थी। उनके द्वारा स्थापित परिपाटियें देग्वन एवं जाननमें आई हैं और उनसे ४४ नंदियोंकी मूची हमारे लिखे हुए 'यु० जिनचन्द्रकई महत्वपूर्ण बातोंका पता चलता है, अतः उनका * अपवाद 'अभयदेवसूरि, पर वे पहले मूलपट्टधर नहीं थे, विवरण नीचे दिया जाता है: इसीलिए उनका पूर्व नाम ही प्रसिद्ध रहा । +अपवाद 'कविजिनहर्ष' पर ऐसा होनेका भी विशेष कारण १ खरतरगच्छके श्रादि पुरुष जिनेश्वरसूरिजीमे होगा। कविवर जिनहर्षके लिए भी हमने एक स्वतंत्र लेख पट्टधर आचार्यों के नामका पूर्वपद 'जिन' रूढ़ होगया लिखा है ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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