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अनेकान्न
दश ने स्त्री मद्यादिनिवृत्तितो दश ॥ ६१ ॥ उपगुणाणतो, विशोरका विशनिश्कारतेषाम् । एकतरतस्तदर्धर्मपामनाचारे ॥ ६२ ॥
X X X उपस्थामिति मे भार्याोग्यन्ति नः परम् । एवास्ते लघुशास्वाया, वृद्धशास्त्रीयपङ्कितः ॥ ६४ ॥ श्रर्थात् द्वादशवर्षीय दुकालके समय कई लोग मयममादि अमद करने लगे, दुकानके बाद समझाने पर भी जब उन्होंने वह अयोग्य व्यवहार न छोड़ा तो सबने मिल कर यह व्यवस्था की, कि जो विश्वादिमे संसर्ग करेंगें एवं खानपानकी शुद्धि नहीं रखेंगे ये दमे कहनापशेपची
इसमें वस्तुपाल - तेजपाल के कारण दमा बीमा भेद ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है, फिर भी ग्रन्थको देखे 정치 बिना नहीं मालूम मुनि ज्ञानसुन्दरजी + ने यह बात मनघडंत कैसे लिख डाली ? इसी प्रकार ब्राह्मणोत्यतिमार्तण्ड में भी वस्तुपाल - तेजपालका नाम नहीं है । कन्हडदेगम अभी तक मेरे अवलोकनमें नहीं थाया, श्रवशेष सभी प्रमाण १८ वीं १६वीं शताब्दी है अर्थात पटना ४०-४०० वर्ष पीछे हैं। अतः केवल उन्हींके श्राधारसे, जबकि अन्य प्राचीन प्रमाण वह प्रवाद श्रप्रमाणिक ठहरता है, कोई निश्चय नहीं हो सकता है ।
भी
मानजी के अन्वेषण में दमावीमा मेदका उल्लेख समे प्राचीन मं० १४६५ के लेख में मिला है, पर मेरे इससे पहलेकी मं०१८ की एक प्रशस्ति में " श्रोशवालवीशा" विशेषण आया है । दमा-चीमा भेदके प्राचीनत्वको सिद्ध करने वाला प्राचीन प्रमाण है स्वरतर नियतिरिचित मामाचारी उक्त मामाचारीकी रचना मं० १२२० मे १२७७ केनतिरि जीने की थी। वे सं० १२७७ में स्वर्गवासी हुए । अतः इससे पहले की होना निश्चित ही है । सामाचारींमं आचार्य उपाध्यायपदादि किस
[ वर्ष ४
किम जाति वालीको दिया जाय इसका निर्देश इन शब्दोंमें किया है:
+ संगठनके डायनामे में थाने इस विषय जो उद्धरण दिये है प्रायः सभी "श्रीमाली जातो कि भेद" पुस्तक में लिये गये हैं, फिर भी उक्त प्रत्थका कहीं नामनिर्देश तर नहीं किया गया ।
"वीसओ मिरिमाल श्रमवाल गोग्राड - कुलसंभृश्री चैत्र आयश्रो दिजइ उज्मा न उ ( ? ) ग पु दमा जातियो, महुतीया टा विजायगा गुरु जो था भोपा ठाविज महत गिरिमाला व विज ।। ६६ ।। अर्थात्- -ग्राचार्य एवं उपाध्याय पदपर बीमा श्रीमाल, श्रमवाल पोरवाड़ ज्ञानि पालेको स्थापित करना चाहिये, दमा जाति बालोको नहीं । इत्यादि ।
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इम प्रमाण से वस्तुपाल तेजपाल यह बात विचारणीय हो जाती है। उस बात का उल्लेख है उनमें हम घटनाका समय सं० १२७५
दसाबीसा भेद हु मनले प्रमाण में
के बादका बतलाया है। यदि उक्त प्रवाद की घटना मं० १२७५ के बाद में मं० १२७५ के बादमें हुई तो उसमें पूर्व की या उसी समय
की रचित "सामाचारी" में दसा बीमा भेदका श्राचार्य पदादि के प्रसंग उल्लेख होना संभवपरक नहीं ज्ञात होता । विमलचत्रि के उपर्युक्त उद्धरणोंसे भी दमा बीसा भेदके प्राचीनत्वकी ही पुष्टि होती है। अतः मेरे नम्र मतानुसार आधुनिक विद्वानां मत विशेष प्राचीन प्रमाणांक अपेक्षा रखता है। आशा है विशेष द्वान इस समस्या पर विशेष प्रकाश टालेगे ।
मुनि श्रीका यह अनुमान "मं०१३६१ तक लघुशाखा वृद्धशेने पृ० ६ में शामा तथा दमा बीमाका नाम संस्करण भी नहीं हुआ है" गलन है ।
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मंगठन डायनामेके पृ० २२ में इस शाखा मेद से जैनाचार्य भी वंचित नही रहे" लिखकर लघु-वृद्धपौशालिक का उदाहरण दिया है पर वह सर्वथा गलत है । लघुवृद्ध पौशालिकका उस भेदसे न तो कोई सम्बन्ध दी है, न वे विशेषण हीनता उच्चता के द्योतक दी हैं । + प्रवादको सत्य मानने में यह भी आपत्ति श्राती है कि वस्तुपाल तेजपाल के कारण दमा बीमाका भेद, स्थानीय पोरबाड़ जाति या अधिक से अधिक श्वेताम्बर समाज में ही वह भेद पड़ सकता था । पर जब हम दसा बीसाका भेद
हादिदिगम्बर व ब्राह्मणादि नेतर जातियोंमें भी पाने हैं तब उक्त प्रवाद की सत्यता में सहज संदेह हो जाता है ।
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