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________________ किरण ११-१२] भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृतिका स्थान बनाये रहा । यश करना रहा. ( यद्यपि भारत अपने में संघटन चक्रवर्तियोंका चक्र चलाता रहा, राज्य छाने के लिये श्रश्वमेव अत्याचार से अपने को बचाने के लिये अत्याचारियोसे लड़ता रहा । धर्म- मर्यादाको बनाये रखने के लिये आपस में झगड़ता रहा; म्याय और सत्यके लिये बढ़ चढ़कर प्राणोंकी आहूतियाँ देता रहा, परन्तु भारत दूसरोका क्षेत्र छीनने के लिए, दूसरोंका धन-दौलत लूटने के लिए, दूसरोंका ईमान-धर्म खोने के लिये, कभी भी दूसरों पर हमलाग्रावर नहीं हुआ। वह इस प्रदर्शके कारण सदा सन्तुष्ट बना अपने घर बैठा रहा । यद्यपि भारत श्रात्मसन्देश देनेके लिये, धर्मका मार्ग बताने के लिये, व्यापारका सम्बन्ध जोड़नेके लिये, अपने सुपुत्रोको सदा बाहिरके देशोंमें भेजना रहा; परन्तु अपनी उद्देश्यपूर्ति के लिये भारतने कभी भी श्रधर्मसे काम न लिया, न्याय से काम न लिया, माया कस्टसे काम न लिया, अत्याचारसे काम न लिया, पशुबलसे कामन लिया। भारत उनसे सदा मत्यका व्यवहार करता रहा, हिंसाका व्यवहार करता रहा, प्रेमका व्यवहार करना रहा, सेवा और महानुभूतिका व्यवहार करता रहा । इतना ही नहीं, इस श्रादर्शके कारण, भारत उन श्रागुन्तको तकको, जो लगातार इसकी भूमि और घनको हमके धर्म और कर्मको हरण करनेके लिये यहां श्राते रहे, 'श्रात्मवत् सर्वभूतेषु' कहकर अपने में मिलाता रहा, उन अनेक वर्ण और जातियांको, जो समय-समय पैदा होकर इसकी एकता को फाड़ती रहीं, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' कहकर एकनाके सूत्र में पिरोता रहा, और उन समस्त विचार धाराश्रोंका, जो इधर-उधर से श्राकर बराबर यहां बहती रहीं 'मत्यमनेकान्तात्मकम्' कहकर सत्यके साथ संगम कराता रहा। लानेके लिये सदा अपने में एकछत्र इस श्रादर्शके कारण ही भारतको अपार सुधारशक्ति (power of adaptation ) मिली है। इसी लिये यह विविध स्थितियोंमें रहता हुआ भी सदा एक बना रहा है, विविध पीड़ाओंको सहता हुश्श्रा भी सदा दृढ़ बना रहा है, विविध उतार-चढ़ाव में से गुजरता हुआ भी सदा अग्रसर बना रहा है। इस आदर्श के कारण ही भारतको अगाध श्रानन्द ५७७ शक्ति मिली है। इसी लिये यह नित नई श्रानर्ते पड़ने पर भी सदा शान्तचित्त बना रहा है, नित दिन लुटाई होने पर भी सदा सन्तुष्ट बना रहा है और बार बार बन्दी होने पर भी सदा स्वतन्त्र बना रहा है। इस श्रादर्शके कारण ही भारतको अटूट समन्त्रयशक्ति power of harmony) मिली है। इसी लिये यह विविध विचारोंसे टकराने पर भी कभी विमूढ नहीं हुआ है, विविध रास्तों मे घिर जाने पर भी कभी भूलभुलय्यांमें नहीं पड़ा है। यह श्रात्म श्रादर्शके सहारे उन्हें यथायोग्य मूल्य देता हुआ उनका समन्वय करता रहा है। यह जीव और पुद्गल में, श्रात्मा और शरीर में, जम्म और कर्म (heredity and culture) में, देव और पुरुषार्थ (fate and effort) में श्रुति और बुद्धि ( Intuition and Intellect) में, प्रवृत्ति और निवृत्ति (Action and renunciation) में, गृहस्थ और सन्यासमें, पुरुष और समाज ( Individual and society) में, नर और नारायण (man and god) में, लोक और परलोकम, आदर्श और विधान ( Ideal and method) में, निश्चय और व्यवहार (Reality and practice) में, मदा महयोग करता रहा है । जो लोग बाहर से चलकर यहाँ विजय करनेके लिये श्राये वे लोग इसके विजेता जरूर हो गये, परन्तु वे सबही इसकी आत्मा विजित होते चले गये, वे सब ही इसके श्रादर्श होते चले गये, इसके विश्वास के होते चले गये, इसके चलनके होते चले गये। होते होते वे इससे इतने रलमिल गये कि श्राज ८०० वर्ष पूर्वके आने वालों में तो विजेता और पराजितका भेद करना भी बहुत मुश्किल है। यद्यपि यहाँ श्राते समय वे सब देवतावादको लेकर श्राये, पराधीनतावादको लेकर श्राये, देवी- इच्छावादको लेकर श्राये, उपशमनार्थ क्रियाकाण्डको लेकर श्राये; परन्तु यहाँ रहने पर वे सब ही देवनाबादकी जगह श्रात्मवादको अपनाते चले गये, पराधीनतावादकी जगह स्वतन्त्रतावादको लेते चले गये, इच्छावादकी जगह कर्मवादको मानते चले गये, क्रियाकाण्डकी जगह सदाचारको अपना मार्ग बनाने चले गये। इस श्रादर्शके कारण ही पूर्व और पच्छिम बाले, जो भारत के सम्पर्कमं श्राये, वे देवतावादको छोड़कर 'आत्मा
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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